Monday, November 7, 2011

11 साल हो गए, अब तो जागो



मणिपुर में सैन्य बलों को मिले विषेशाधिकारों का विरोध कर रही इरोम शर्मिला को अनशन पर बैठे 11 साल पूरे हो गए । 4 नवंबर 2000 को इरोम चानू शर्मिला ने सैन्य बलों द्वारा जनता पर किये जा रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन आज तक उनकी मांग को मानना तो दूर बातचीत करना भी जायज नहीं समझा गया। आश्चर्य की बात है कि मीडिया ने भी इस मामले में चुप्पी साध ली है ।
वर्धा के युवा सड़कों पर

    जनता, सरकार और मीडिया की इसी चुप्पी को तोड़ने के लिए गत 5 नवंबर(शनिवार) को महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर वर्धा के युवा सड़क पर उतरे । विश्व इतिहास में अब तक की सबसे लंबी चलने वाली भूख हड़ताल के समर्थन में युवाओं ने रैली निकाली और धरना दिया । इरोम तुम्हारे सपनों को मंजिल तक पहुचायेंगे, राजकीय कानूनी हिंसा बंद करो जैसे कई नारे वर्धा की सड़कों पर गूंज रहे थे । वैसे तो यह रैली महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रिय हिंदी विश्वविद्यालय से निकली लेकिन वर्धा के लोगों खासकर युवाओं ने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया । 10 बजे सुबह निकला यह जुलुस शहर का चक्कर लगाते हुए जिलाधिकारी कार्यालय के सामने धरने पर बैठा । धरना के दौरान शर्मिला के लिए नारेबाजी के साथ-साथ नुक्कड़ नाटक का भी प्रदर्शन किया गया । युवाओं ने सांकेतिक रूप से एक दिन का अनशन भी किया। इसका उद्देश्य सरकार की नींद तोड़ने के साथ-साथ जनता को भी जागरूक करना था ।
मीडिया और हिंदी पट्टी की नज़र में
 
मणिपुर का जिक्र आते ही अधिकांश लोग कन्नी काटना शुरु कर देते हैं । कई दफा यहां तक सुनने को मिलता है कि अच्छा तो मणिपुर अपने ही देश में है । अगर दिल्ली का ही लें तो हमारे पुर्वोत्तर के साथियों को कमरा ढूंढने से लेकर अपनी स्वच्छ छवि तक के लिये काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है । देशभक्ती का तगमा लगाये अघिकांश लोगों के लिये सिर्फ चिंकीज होते है । एक सवाल जो लाजमी है कि क्या इसी तरह का कोई अनशन बिहार, झारखंड, यूपी जैसे किसी राज्य से हो रहा होता तो उसका भी यही हश्र होता ? क्या मीडिया तब उसे दरकिनार कर पाती ? वैसे भी जिस राज्य से मात्र दो सांसद हो और जिस कार्यक्रम से कोई खास टीआरपी नहीं मिलने जा रही हो उसके लिये कोई क्यों मगजमारी करे ! 
उद्देश्य से भटका आफ्सपा
 
1958 में नागा विद्रोह को नियंत्रित करने के लिए पहली बार आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट(आफ्सपा) कानून अमल में लाया गया । शुरूआती दौर में इसका उपयोग केवल नागा को नियंत्रित करने के लिए किया गया और इसे जल्द हटाने की बात भी कही गयी लेकिन ऐसा नहीं हुआ । इसके विपरीत यह कानून पूर्वोत्तर के सात राज्यों से होता हुआ काश्मीर तक पहुंच गया । इस कानून के अनुसार सैन्य बलों को यह अधिकार है कि वे शक के आधार पर किसी को भी गोली मार सकते हैं और उनपर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती । पिछले 53 वर्षों में हजारों बार यह साबित हो चुका है कि अफ्सपा लोकतंत्र पर काला धब्बा है । इस बात को सरकार भी दबी जुबान में स्वीकार करती आई है । 2004 में भारत सरकार द्वारा गठित रेड्डी की अध्यक्षता वाले कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि चाहे जो भी कारण रहे हों, ये कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी के साधन का एक प्रतीक बन गया है। हजारों निर्दोशों को गोलियों से भून दिया गया । महिलाओं के साथ दुराचार, बलात्कार, बच्चों का कत्ल जैसे कृत्यों को सरेआम अंजाम दिया जा रहा है । हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएं इतनी आम हो गयी हैं कि वहां जब कोई घर से निकलता है तो घरवाले इस बात से भयभीत रहते हैं कि पता नहीं वे वापस लौटेंगे या नहीं । इरोम चानू शर्मिला ने जनता को चैन और सुकून की जिंदगी दिलवाने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की । 
और अंत में
 
      सैन्य बलों ने इरोम को जबरदस्ती कृत्रिम साधनों के जरिए जिंदा तो रखा है लेकिन उनका शरीर बिल्कुल बेजान हो चुका है । इसके बावजूद शर्मिला के इरादे कमजोर नहीं पड़े हैं । वह ठीक से बोल नहीं पाती लेकिन अपनी आवाज को सरकार तक पहुंचाना उनका मकसद है ।  

11 साल हो गए, अब तो जागो



मणिपुर में सैन्य बलों को मिले विषेशाधिकारों का विरोध कर रही इरोम शर्मिला को अनशन पर बैठे 11 साल पूरे हो गए । 4 नवंबर 2000 को इरोम चानू शर्मिला ने सैन्य बलों द्वारा जनता पर किये जा रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन आज तक उनकी मांग को मानना तो दूर बातचीत करना भी जायज नहीं समझा गया। आश्चर्य की बात है कि मीडिया ने भी इस मामले में चुप्पी साध ली है ।
      जनता, सरकार और मीडिया की इसी चुप्पी को तोड़ने के लिए गत 5 नवंबर(शनिवार) को महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर वर्धा के युवा सड़क पर उतरे । विश्व इतिहास में अब तक की सबसे लंबी चलने वाली भूख हड़ताल के समर्थन में युवाओं ने रैली निकाली और धरना दिया । इरोम तुम्हारे सपनों को मंजिल तक पहुचायेंगे, राजकीय कानूनी हिंसा बंद करो जैसे कई नारे वर्धा की सड़कों पर गूंज रहे थे । वैसे तो यह रैली महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रिय हिंदी विश्वविद्यालय से निकली लेकिन वर्धा के लोगों खासकर युवाओं ने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया । 10 बजे सुबह निकला यह जुलुस शहर का चक्कर लगाते हुए जिलाधिकारी कार्यालय के सामने धरने पर बैठा । धरना के दौरान शर्मिला के लिए नारेबाजी के साथ-साथ नुक्कड़ नाटक का भी प्रदर्शन किया गया । युवाओं ने सांकेतिक रूप से एक दिन का अनशन भी किया। इसका उद्देश्य सरकार की नींद तोड़ने के साथ-साथ जनता को भी जागरूक करना था ।
मणिपुर का जिक्र आते ही अधिकांश लोग कन्नी काटना शुरु कर देते हैं । कई दफा यहां तक सुनने को मिलता है कि अच्छा तो मणिपुर अपने ही देश में है । अगर दिल्ली का ही लें तो हमारे पुर्वोत्तर के साथियों को कमरा ढूंढने से लेकर अपनी स्वच्छ छवि तक के लिये काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है । देशभक्ती का तगमा लगाये अघिकांश लोगों के लिये सिर्फ चिंकीज होते है । एक सवाल जो लाजमी है कि क्या इसी तरह का कोई अनशन बिहार, झारखंड, यूपी जैसे किसी राज्य से हो रहा होता तो उसका भी यही हश्र होता ? क्या मीडिया तब उसे दरकिनार कर पाती ? वैसे भी जिस राज्य से मात्र दो सांसद हो और जिस कार्यक्रम से कोई खास टीआरपी नहीं मिलने जा रही हो उसके लिये कोई क्यों मगजमारी करे !
1958 में नागा विद्रोह को नियंत्रित करने के लिए पहली बार आम्र्ड फोर्सेस स्पेषल पावर एक्ट(आफ्सपा) कानून अमल में लाया गया । शुरूआती दौर में इसका उपयोग केवल नागा को नियंत्रित करने के लिए किया गया और इसे जल्द हटाने की बात भी कही गयी लेकिन ऐसा नहीं हुआ । इसके विपरीत यह कानून पूर्वोत्तर के सात राज्यों से होता हुआ काश्मीर तक पहुंच गया । इस कानून के अनुसार सैन्य बलों को यह अधिकार है कि वे शक के आधार पर किसी को भी गोली मार सकते हैं और उनपर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती । पिछले 53 वर्षों में हजारों बार यह साबित हो चुका है कि अफ्सपा लोकतंत्र पर काला धब्बा है । इस बात को सरकार भी दबी जुबान में स्वीकार करती आई है । 2004 में भारत सरकार द्वारा गठित रेड्डी की अध्यक्षता वाले कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि चाहे जो भी कारण रहे हों, ये कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी के साधन का एक प्रतीक बन गया है। हजारों निर्दोशों को गोलियों से भून दिया गया । महिलाओं के साथ दुराचार, बलात्कार, बच्चों का कत्ल जैसे कृत्यों को सरेआम अंजाम दिया जा रहा है । हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएं इतनी आम हो गयी हैं कि वहां जब कोई घर से निकलता है तो घरवाले इस बात से भयभीत रहते हैं कि पता नहीं वे वापस लौटेंगे या नहीं । इरोम चानू शर्मिला ने जनता को चैन और सुकून की जिंदगी दिलवाने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की।
      सैन्य बलों ने इरोम को जबरदस्ती कृत्रिम साधनों के जरिए जिंदा तो रखा है लेकिन उनका शरीर बिल्कुल बेजान हो चुका है । इसके बावजूद शर्मिला के इरादे कमजोर नहीं पड़े हैं । वह ठीक से बोल नहीं पाती लेकिन अपनी आवाज को सरकार तक पहुंचाना उनका मकसद है ।  

11 साल हो गए, अब तो जागो



मणिपुर में सैन्य बलों को मिले विषेशाधिकारों का विरोध कर रही इरोम शर्मिला को अनशन पर बैठे 11 साल पूरे हो गए । 4 नवंबर 2000 को इरोम चानू शर्मिला ने सैन्य बलों द्वारा जनता पर किये जा रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन आज तक उनकी मांग को मानना तो दूर बातचीत करना भी जायज नहीं समझा गया। आश्चर्य की बात है कि मीडिया ने भी इस मामले में चुप्पी साध ली है ।
      जनता, सरकार और मीडिया की इसी चुप्पी को तोड़ने के लिए गत 5 नवंबर(शनिवार) को महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर वर्धा के युवा सड़क पर उतरे । विश्व इतिहास में अब तक की सबसे लंबी चलने वाली भूख हड़ताल के समर्थन में युवाओं ने रैली निकाली और धरना दिया । इरोम तुम्हारे सपनों को मंजिल तक पहुचायेंगे, राजकीय कानूनी हिंसा बंद करो जैसे कई नारे वर्धा की सड़कों पर गूंज रहे थे । वैसे तो यह रैली महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रिय हिंदी विश्वविद्यालय से निकली लेकिन वर्धा के लोगों खासकर युवाओं ने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया । 10 बजे सुबह निकला यह जुलुस शहर का चक्कर लगाते हुए जिलाधिकारी कार्यालय के सामने धरने पर बैठा । धरना के दौरान शर्मिला के लिए नारेबाजी के साथ-साथ नुक्कड़ नाटक का भी प्रदर्शन किया गया । युवाओं ने सांकेतिक रूप से एक दिन का अनशन भी किया। इसका उद्देश्य सरकार की नींद तोड़ने के साथ-साथ जनता को भी जागरूक करना था ।
मणिपुर का जिक्र आते ही अधिकांश लोग कन्नी काटना शुरु कर देते हैं । कई दफा यहां तक सुनने को मिलता है कि अच्छा तो मणिपुर अपने ही देश में है । अगर दिल्ली का ही लें तो हमारे पुर्वोत्तर के साथियों को कमरा ढूंढने से लेकर अपनी स्वच्छ छवि तक के लिये काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है । देशभक्ती का तगमा लगाये अघिकांश लोगों के लिये सिर्फ चिंकीज होते है । एक सवाल जो लाजमी है कि क्या इसी तरह का कोई अनशन बिहार, झारखंड, यूपी जैसे किसी राज्य से हो रहा होता तो उसका भी यही हश्र होता ? क्या मीडिया तब उसे दरकिनार कर पाती ? वैसे भी जिस राज्य से मात्र दो सांसद हो और जिस कार्यक्रम से कोई खास टीआरपी नहीं मिलने जा रही हो उसके लिये कोई क्यों मगजमारी करे !
1958 में नागा विद्रोह को नियंत्रित करने के लिए पहली बार आम्र्ड फोर्सेस स्पेषल पावर एक्ट(आफ्सपा) कानून अमल में लाया गया । शुरूआती दौर में इसका उपयोग केवल नागा को नियंत्रित करने के लिए किया गया और इसे जल्द हटाने की बात भी कही गयी लेकिन ऐसा नहीं हुआ । इसके विपरीत यह कानून पूर्वोत्तर के सात राज्यों से होता हुआ काश्मीर तक पहुंच गया । इस कानून के अनुसार सैन्य बलों को यह अधिकार है कि वे शक के आधार पर किसी को भी गोली मार सकते हैं और उनपर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती । पिछले 53 वर्षों में हजारों बार यह साबित हो चुका है कि अफ्सपा लोकतंत्र पर काला धब्बा है । इस बात को सरकार भी दबी जुबान में स्वीकार करती आई है । 2004 में भारत सरकार द्वारा गठित रेड्डी की अध्यक्षता वाले कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि चाहे जो भी कारण रहे हों, ये कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी के साधन का एक प्रतीक बन गया है। हजारों निर्दोशों को गोलियों से भून दिया गया । महिलाओं के साथ दुराचार, बलात्कार, बच्चों का कत्ल जैसे कृत्यों को सरेआम अंजाम दिया जा रहा है । हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएं इतनी आम हो गयी हैं कि वहां जब कोई घर से निकलता है तो घरवाले इस बात से भयभीत रहते हैं कि पता नहीं वे वापस लौटेंगे या नहीं । इरोम चानू शर्मिला ने जनता को चैन और सुकून की जिंदगी दिलवाने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की।
      सैन्य बलों ने इरोम को जबरदस्ती कृत्रिम साधनों के जरिए जिंदा तो रखा है लेकिन उनका शरीर बिल्कुल बेजान हो चुका है । इसके बावजूद शर्मिला के इरादे कमजोर नहीं पड़े हैं । वह ठीक से बोल नहीं पाती लेकिन अपनी आवाज को सरकार तक पहुंचाना उनका मकसद है ।