Friday, December 17, 2010

बालीवुड की बीमारियां
बालीवुड ने शुरूआती दौर से समाज के अनछूए मुद्दों को फिल्मों के माध्यम से दर्शकों तक पहुंचाया है। हांलाकि मसाला और थ्रीलर फिल्मों को व्यवसाय के लिहाज से बेहतर माना जाता है लेकिन इसके बावजूद गंभीर विषयों पर फिल्में लगातार बन रही हैं। आजकल बाॅलीवुड में बिमारियों की थीम पर फिल्में बनाने का दौर चल रहा है। वैसे यहां भी हिन्दी फिल्मों के निर्माताओं ने हाॅलीवुड से ही प्रेरणा ली है, लेकिन फिर भी इसे एक साहसिक कदम ही कहा जाएगा। इसमें कोई शक नहीं कि बिमारियां समाज का हिस्सा हैं और फिल्मों में उसे तवज्जो भी दी जाती रही है। लेकिन इनदिनों फिल्मों के जरिए ऐसी बिमारियों के बारे में लोगों में जागरूकता आई है जिसके बारे बहुत कम लोगों को जानकारी थी। मेडिकल थीम पर आधारित फिल्में दर्शकों को काफी भा रही हैं।
2007 में आयी फिल्म ‘तारे जमीन पर’ में डिस्लेक्सिया से पीड़ित बच्चे की उलझनों ने न केवल दर्शकों को इस बिमारी की तह तक पहुंचाया बल्कि इससे निबटने का उपाय भी काफी सहज तरीके से बता दिया। आमिर खान के निर्देशन में बनी इस फिल्म में उम्दा अभिनय और उत्कृष्ट फिल्मांकन ने मरीज की पीड़ा को दर्शकों के दिल तक पहुंचा दिया तथा फिल्म भी सुपरहीट साबित हुई। यही नहीं फिल्म भारत की ओर से आॅस्कर के लिए भी भेजी गई। ‘मिस्टर परफेक्सनिस्ट’ के नाम से मशहूर आमिर की यह फिल्म सही मायने में एक यादगार फिल्म है। अपनी बेहतरीन अदाकारी से आमिर ने फिल्म ‘गजनी’ में एक ‘शाॅर्ट टर्म मेमोरी लाॅस’ के मरीज को दर्शकों के बीच मशहूर कर दिया। इससे पहले इस बिमारी की जानकारी सीमित लोगों को ही थी, हालांकि कई काॅलेजों तथा यूनिवर्सिटी में इन मरीजों को आरक्षण काफी समय से दिया जा रहा था।
अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म ‘पा’ में एक ऐसे बच्चे की कहानी है जो अपनी उम्र से काफी बड़ा ही नहीं दिखता बल्कि उसे बचपन मेें ही बुढ़ापे का सामना भी करना पड़ता है। प्रोजेरिया नामक इस बिमारी में मरीज की आम लोगों की अपेक्षा 4-6 गुणा ज्यादा तेजी से बढ़ता है। प्रोजेरिया की जानकारी केवल उन लोगों को ही थी जो इससे पीड़ित थे या फिर उनका कोई अपना इसका शिकार बन चुका था। बाकी दर्शक-वर्ग के लिए यह बिमारी एक चैंकाने वाली बिमारी थी। सदी के महानायक ने फिल्म ‘ब्लैक’ में एक ऐसी लड़की के शिक्षक का किरदार निभाया जो न बोल सकती थी, ने सुन सकती थी और न देख सकती थी। उस लड़की को नई जिंदगी देने वाला यह शिक्षक अपने उम्र के आखिरी पड़ाव में ‘अल्जेमर’ नामक बिमारी से ग्रसित हो जाता है और अपने आप को भी भूल जाता है। एक मूक, बधीर और अंधी लड़की की संवेदनाओं को समझना आम इंसान के बस की बात नहीं है लेकिन रानी मुखर्जी ने इस किरदार को जिवंत कर दिया। फिल्म के निर्देशक संजय लीला भंसाली ने बड़ी ही खुबसूरती से सारी संवेदनाओं को पर्दे पर उतारकर दर्शकों के दिल में जगह दे दी।
काजोल ने अपनी फिल्मी कैरियर का दूसरा दौर शुरू किया होम प्रोडक्शन फिल्म ‘यू मी और हम’ से। हालांकि यह फिल्म बाॅक्स आॅफिस पर कुछ खास कमाल नहीं सकी लेकिन ‘अल्जमेर’ की मरीज के रूप में काजोल के अभिनय की काफी तारीफ हुई। अजय देवगन और काजोल ने इसे एक ऐसी लव-स्टोरी के तौर पर बनाई जिसमें नायिका की यादाश्त कभी-कभी चली जाती है। यहां तक कि वह अपनी खुद की पहचान भी भूल जाती है। ऐसे इंसान के साथ पूरी जिंदगी बिताना काफी मुश्किल है लेकिन फिल्म ने सिखाया कि प्यार किसी भी बिमारी की सबसे बड़ी दवा है।
अभी कुछ ही दिनों पहले राकेश रौशन ने ‘क्रेजी-4’ का निर्माण किया। फिल्म में चार मानसिक रूप से विक्षिप्त किरदार के दुनिया को देखने और समझने का नजरिया दिखाया गया है। शायद आप और हम इस बारे में कभी सोच भी नहीं सकते थे कि इनकी भी एक दुनिया होगी लेकिन राकेश रौशन ने इसे पर्दे उतारकर हमारे सोचने का दायरा ही बढ़ा दिया। हांलाकि फिल्म अपने विषय को लेकर नहीं बल्कि अन्य कारणों से चर्चा में रही। राकेश रौशन ने फिल्म ‘कोई मिल गया’ में अपने बेटे रितिक रौशन को ‘आॅटिज्म’ के मरीज का किरदार बनाया। रितिक ने भी इसे बखुबी निभाया और कई अवार्ड्स भी जीते।
हाल ही में निर्माता-निर्देशक करण जौहर अपनी महत्वकांक्षी फिल्म ‘माई नेम इज खान’ का निर्माण किया। इसमें नायक शाहरूख खान ने ‘एस्पर्जर सिन्ड्रोम’ के मरीज की भूमिका निभाई थी। इस बिमारी भी की जानकारी भी बहुत कम लोगों को थी। इमरान खान अभिनीत ‘लक’ में नायक को डेक्ट्रोकार्डिया नामक बिमारी रहती है। इसमें रोगी का दिल बायीं ओर की बजाय दाहिनी ओर होता है। मेडिकल थीम पर बनने वाली फिल्मों की सूची काफी लंबी है। अपना आसमान, रेड द डार्क साइड, एकलव्य, अपरीचित, जुर्म, आंखे, अक्स, अर्थ, दुश्मन जैसी अनेक फिल्मों ने दर्शकों को अनजान बिमारियों से रू-ब-रू कराया है। फिल्म ‘फिर मिलेंगे’ में एड्स जैसी लाइलाज बिमारी के बारे जागरूकता लाने की कोशिश की गई है। लोगों में फैली गलतफहमी और अज्ञानता को दूर करते हुए यह बताया गया कि एड्स छूआछूत की बिमारी नहीं है।
इतना तो दिया तय है कि इन फिल्मों ने न केवल इन बिमारियों के बारे में हमारी जानकारी बढ़ाई है बल्कि यह भी सीख दी है कि बिमारियों के बावजूद ये मरीज इसी समाज का हिस्सा हैं और इनके साथ रहना मुश्किल नहीं है। साथ ही अपनेपन और प्यार को इन बिमारियों के दवा के रूप में प्रचारित भी किया जा रहा है।