शुरूआत में तो बड़ा अच्छा-अच्छा महसूस हुआ। क्वालिटी टाइम की परिभाषा समझ में आने लगी। जाड़े के दिनों में गुनगुनी धूप टाइप फीलिंग आने लगी। घर लजीज पकवानों से सजने लगा। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीते गुनगुनी धूप का एहसास लू के झरक में बदल गया। पतिदेव समय निकाल कर घर के कामों में मदद कर तो देते पर हमारी जिम्मेवारी ने खतम होने का नाम ही नहीं लेने लगी। ऊपर से दस मिनट के लिए मार्केट जाने के बाद आधा घंटा खुद को और बाहर से लाने वाले सामानों को सेनेटाइज करने में बीत जाता है। अपना दुखड़ा क्या ही सुनाऊं हाथ धोते-धोते अब तो लकीरें भी मिटने लगी हैं। खुद पढ़ना तो दूर बच्चों की पढ़ाई पर भी ध्यान देना मुश्किल होने लगा। थक-हार कर जब देश-दुनिया का हाल देखने बैठे तो दिल बैठ जाता। कई रिश्तेदारों को नौकरी से हाथ धोते देखा। मन मायूस होने लगा। हमारे पति (ये वही कर्मवीर हैं जिसके लिए आपने और हमने थाली और लोटा बजाया था) जब कभी भीड़-भाड़ वाली जगहों पर जाया करते खुद को आइसोलेट (इसी काल का एक और प्रचलित शब्द) कर लिया करते। कुल मिलाकर हमारे कंधों पर हमारे वजन से ज्यादा जिम्मेवारियां आ चुकी थीं। ऐसे में शुरू हुआ इस सफर का दूसरा पड़ाव यानि बच्चों की ऑनलाइन क्लासेज।
कभी व्हाटसेप, कभी जूम तो कभी गूगल मीट पर क्लास के नाम पर खानापूर्ति होती रही। हम सारा काम निबटाकर या छोड़कर बच्चों के साथ फिर से ककहरा पढ़ने लगे। ऐसा लगता मानो हमारी ही क्लास होने वाली हो, बच्चों को तो बस नाम के लिए मोबाइल के सामने बिठाया जाता। जो बच्चे क्लास में इधर-उधर ज्यादा नजर रखते हैं वे मोबाइल की पढ़ाई में कितनी तल्लिनता दिखाएंगे ये तो कोई भी समझ सकता है। पूरे समय उन्हें जैसे-तैसे एक्टिव रखने के बाद होमवर्क बनवाना और रट्टा मरवाना भी हमारे ही जिम्मे था सो साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल करते हुए इसके पालन में हमने कोई कसर न छोड़ी। किसी दिन अगर बच्चा क्लास (मेरा मतलब ऑनलाइन क्लास) में जवाब न दे पाए तो कसम से ऐसा लगता मानो हमने होमवर्क न किया हो और बेइज्जी जैसी फीलींग आती। पिछले तीन महीने के ऑनलाइन क्लास से एक ही बात समझ आई कि स्कूल वालों को मुफ्त में फीस लेने में शर्मींदगी महसूस होने लगी थी इसलिए यह क्लास उनके लिए जरूरी था। फीस देते समय जब ऑनलाइन पैरेंट टीचर मीटिंग की चर्चा करते तो प्रिंसीपल की बत्तीसी देखने लायक होती। शिक्षकों का भी एक ही मकसद रह गया जितना हो सके पैरेंट्स को उनकी औकात बताते रहें इससे उनपर ऊंगली नहीं उठे। रट्टा मरवाते मरवाते हम ये भी भूल गए कि आखिर उन्हें पढ़ाना क्या है। इससे भी जब चैन न मिला तो स्कूल एक्टिविटी के नाम पर हमें घंटों काम पर लगवा दिया जाता। अब कोई ये बताए कि अपनी उम्र से पांच-दस साल बड़ी उम्र के बच्चों वाले प्रोजेक्ट स्कूलों में दिए ही क्यों जाते हैं? खैर जो भी हो हमने तो यही सीखा कि जो लोग स्कूल टाइम में पढ़ाई न भी किए हों उन्हें भी पूरी तरह तत्पर होकर पढ़ना पड़ रहा है, वो कहते हैं न कि ऊपरवाला सब देख रहा है। इसलिए आज के जेनरेशन से आग्रह है कि अपनी पढ़ाई आज ही पूरी कर लें वरना कल को बच्चों के साथ भी करना पड़ सकता है।
अब तो कोरोना माई से यही दुआ है कि पूरी दुनिया में जिसे कोई न पहचान सका हमारे देश और खासतौर से बिहार के लोगों ने न केवल पहचाना बल्कि लॉकडाउन के बावजूद गंगा जी में स्नान-ध्यान कर बड़े भक्ति-भाव से आप की पूजा-अर्चना भी की। इसलिए हे कोरोना माई आप वापस अपने जन्मस्थान को चली जाएं और हमें इस लॉकडाउन की जिंदगी से निजात दिलाएं।