Friday, August 7, 2020

हे कोरोना माई अब तो लौट जाओ अपने घर, लड्डू चढ़ाएंगे

इस बार होली ढंग से बीती भी नहीं कि कोरोना माई ने अपने पैर इस देश में पसारना शुरू कर दिया। क्या बताऊं कितनी ख़ुशी हुई थी जब मोदी जी ने लॉकडाउन शब्द से पहली बार परिचय कराया था। ऐसा लगा मानो बिन मांगे ही हमें तो लंबी छुट्टी मिल गई। अब तो जिंदगी में बहार आ गई। न तो सुबह-सुबह बच्चों को स्कूल भेजने का झंझट और न ही बाहर घुमाने के लिए ले जाने की जरूरत। बस एक पतिदेव को निबटा कर (कहने का मतलब है काम के लिए भेज कर) पूरे दिन मौज करना है। पति को भी आधे दिन बाहर और आधे दिन वर्क फ्रॉम मिला था, हमने सोचा यही बहाने दोनों मिलकर दुख-सुख बतियाएंगे। बस हमने तो मन ही मन करोना माई को धन्यवाद दिया और शुरू कर दी हर दिन को विकेंड बनाने की तैयारी। लेकिन हाय री हमारी किस्मत, इसे क्या पता था कि ये कोरोना और लॉकडाउन क्या-क्या दिन दिखाएगी। सबसे पहले तो हमने अपने जिगर को पत्थर का बना कर कामवाली दीदी को लंबी छुट्टी दे दी। इसके बाद शुरू हुआ हमारा लॉकडाउन का सफर। 

शुरूआत में तो बड़ा अच्छा-अच्छा महसूस हुआ। क्वालिटी टाइम की परिभाषा समझ में आने लगी। जाड़े के दिनों में गुनगुनी धूप टाइप फीलिंग आने लगी। घर लजीज पकवानों से सजने लगा। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीते गुनगुनी धूप का एहसास लू के झरक में बदल गया। पतिदेव समय निकाल कर घर के कामों में मदद कर तो देते पर हमारी जिम्मेवारी ने खतम होने का नाम ही नहीं लेने लगी। ऊपर से दस मिनट के लिए मार्केट जाने के बाद आधा घंटा खुद को और बाहर से लाने वाले सामानों को सेनेटाइज करने में बीत जाता है। अपना दुखड़ा क्या ही सुनाऊं हाथ धोते-धोते अब तो लकीरें भी मिटने लगी हैं। खुद पढ़ना तो दूर बच्चों की पढ़ाई पर भी ध्यान देना मुश्किल होने लगा। थक-हार कर जब देश-दुनिया का हाल देखने बैठे तो दिल बैठ जाता। कई रिश्तेदारों को नौकरी से हाथ धोते देखा। मन मायूस होने लगा। हमारे पति (ये वही कर्मवीर हैं जिसके लिए आपने और हमने थाली और लोटा बजाया था) जब कभी भीड़-भाड़ वाली जगहों पर जाया करते खुद को आइसोलेट (इसी काल का एक और प्रचलित शब्द) कर लिया करते। कुल मिलाकर हमारे कंधों पर हमारे वजन से ज्यादा जिम्मेवारियां आ चुकी थीं। ऐसे में शुरू हुआ इस सफर का दूसरा पड़ाव यानि बच्चों की ऑनलाइन क्लासेज। 

कभी व्हाटसेप, कभी जूम तो कभी गूगल मीट पर क्लास के नाम पर खानापूर्ति होती रही। हम सारा काम निबटाकर या छोड़कर बच्चों के साथ फिर से ककहरा पढ़ने लगे। ऐसा लगता मानो हमारी ही क्लास होने वाली हो, बच्चों को तो बस नाम के लिए मोबाइल के सामने बिठाया जाता। जो बच्चे क्लास में इधर-उधर ज्यादा नजर रखते हैं वे मोबाइल की पढ़ाई में कितनी तल्लिनता दिखाएंगे ये तो कोई भी समझ सकता है। पूरे समय उन्हें जैसे-तैसे एक्टिव रखने के बाद होमवर्क बनवाना और रट्टा मरवाना भी हमारे ही जिम्मे था सो साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल करते हुए इसके पालन में हमने कोई कसर न छोड़ी। किसी दिन अगर बच्चा क्लास (मेरा मतलब ऑनलाइन क्लास) में जवाब न दे पाए तो कसम से ऐसा लगता मानो हमने होमवर्क न किया हो और बेइज्जी जैसी फीलींग आती। पिछले तीन महीने के ऑनलाइन क्लास से एक ही बात समझ आई कि स्कूल वालों को मुफ्त में फीस लेने में शर्मींदगी महसूस होने लगी थी इसलिए यह क्लास उनके लिए जरूरी था। फीस देते समय जब ऑनलाइन पैरेंट टीचर मीटिंग की चर्चा करते तो प्रिंसीपल की बत्तीसी देखने लायक होती। शिक्षकों का भी एक ही मकसद रह गया जितना हो सके पैरेंट्स को उनकी औकात बताते रहें इससे उनपर ऊंगली नहीं उठे। रट्टा मरवाते मरवाते हम ये भी भूल गए कि आखिर उन्हें पढ़ाना क्या है। इससे भी जब चैन न मिला तो स्कूल एक्टिविटी के नाम पर हमें घंटों काम पर लगवा दिया जाता। अब कोई ये बताए कि अपनी उम्र से पांच-दस साल बड़ी उम्र के बच्चों वाले प्रोजेक्ट स्कूलों में दिए ही क्यों जाते हैं? खैर जो भी हो हमने तो यही सीखा कि जो लोग स्कूल टाइम में पढ़ाई न भी किए हों उन्हें भी पूरी तरह तत्पर होकर पढ़ना पड़ रहा है, वो कहते हैं न कि ऊपरवाला सब देख रहा है। इसलिए आज के जेनरेशन से आग्रह है कि अपनी पढ़ाई आज ही पूरी कर लें वरना कल को बच्चों के साथ भी करना पड़ सकता है। 

अब तो कोरोना माई से यही दुआ है कि पूरी दुनिया में जिसे कोई न पहचान सका हमारे देश और खासतौर से बिहार के लोगों ने न केवल पहचाना बल्कि लॉकडाउन के बावजूद गंगा जी में स्नान-ध्यान कर बड़े भक्ति-भाव से आप की पूजा-अर्चना भी की। इसलिए हे कोरोना माई आप वापस अपने जन्मस्थान को चली जाएं और हमें इस लॉकडाउन की जिंदगी से निजात दिलाएं।

Wednesday, May 22, 2013

थम नहीं रहा यौन हिंसा का सिलसिला

पूरे देश में बलात्कार और बलात्कारियों के खिलाफ आन्दोलन जोर-शोर से चल रहा है. नए-नए क़ानून बनाए जा रहे हैं. इसके बावजूद बलात्कार तथा छेड़छाड़ के मामलों में कमी नहीं हो रही बल्कि दिन-ब-दिन बढती ही जा रही है. बिहार में भी तक़रीबन हर दिन अखबारों में बलात्कार और छेड़छाड़ की ख़बरें आम बात हो गई है. इससे भले ही पूरा देश अनभिज्ञ रहे पर दर्द और तकलीफ तो यहाँ भी उतनी ही है. मासूम गुड़िया की दिल दहला देने वाली घटना के बाद तक़रीबन दर्जन भर मामले यहाँ सामने आ चुके हैं. जो मामले किसी वजह से दब चुके हैं, उसके बारे में बताना संभव नहीं. यह एक ऐसा अपराध है जिसमें हर तरह से सजा पीड़ित को ही मिलती है. कई बार समाज के डर से तो कई बार अपराधियों की धमकियों से पीड़िता को चुपचाप दर्द का घूँट पीकर रहना पड़ता है. यह दर्द कुछ पल, दिन या साल का नहीं होता बल्कि पूरे उम्र नासूर की तरह चुभता रहता है. हाल के दिनों में राज्य में घटित कुछ दुष्कर्मों पर भी अगर नजर डालें तो राज्य में महिलाओं स्थिति का कुछ तो अंदाज जरुर लग सकता है. 18 अप्रैल को राजधानी पटना से करीब 10 किलोमीटर दूर बिहटा में सात साल की मासूम बच्ची को अपराधियों ने हवस का शिकार बनाया. साथ ही पीड़ित परिवार को धमकी देकर मामले को दबाने की कोशिश भी की, हालांकि 4 दिन बाद मामला पुलिस के पास पहुँच गया. वहीँ पश्चिम चंपारण के मझौलिया गाँव में 17 साल की नाबालिग को पहले तो अपराधियों ने अगवा किया फिर उसी की माँ के सामने ही सामूहिक बलात्कार किया. 6 मई की रात राजधानी से कुछ ही दूर बिहिया में आठ साल की मासूम के साथ एक किशोर ने दुष्कर्म किया. दूसरे ही दिन 7 मई को आरा से रघुनाथपुर जा रही सवारी गाडी में एक महिला के साथ दुष्कर्म किया गया. ब्रह्मपुर थाना क्षेत्र के इस अपराधी ने ट्रेन के पिछले डब्बे मंा बैठी महिला को देखा और मौका पाते ही अपनी हवस का शिकार बना लिया. 7 मई को दरभंगा जिले के हरशेर गाँव में सात वर्ष की बच्ची को उसी के गाँव के 19 साल के युवक ने अपनी हवस का शिकार बनाया. इधर मुजफ्फरपुर जिले के मिश्रीटोला गाँव की एक नाबालिग के साथ उसी के प्रेमी ने अपने साथियों के साथ मिल कर दुष्कर्म किया. विरोध करने पर उसे ब्लेड से घायल कर तेजाब से जलाया गया. पीड़िता के बेहोश होने पर उसे मरा हुआ समझ कर अपराधी भाग गए. 6 मई को जब उसे होश आया तो अपनी हालत देखकर बिलख पड़ी. वह हादसे से इस कदर टूट चुकी है कि अब जीना नहीं चाहती. 6 मई को ही खुद को तांत्रिक कहने वाले एक मधुबनी जिले के केसुली गाँव में एक युवती के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की, हालांकि लड़की के शोर मचाने पर गाँववालों ने पीट-पीट कर उसकी हत्या कर दी. ये केवल कुछ उदाहरण हैं, ऐसे कई मामले पुलिस विभाग की फाइलों में लगातार दर्ज हो रहे हैं तो कई डर या शर्म की वजह दब जाते हैं. कई बार तो पुलिस खुद ही मामले को रफा-दफा करने की कोशिश करने लगती है. इसका उदाहरण है रोहतास सूर्यपुरा थाना, जहाँ छेड़खानी की शिकायत करने आई लड़कियों को बहला-फुसला कर वापस कर दिया गया. बार-बार शिकायत करने पर भी जब पुलिस की तरफ से कोई कार्यवाई नहीं की गई तो मनचलों को छेड़खानी की खुली छुट मिल गई. सड़कों पर खुले-आम लड़कियों के साथ छेडखानी बढती गई. अंत में जब मामला मुख्यमंत्री के जनता दरबार में पहुँचा तो अभियुक्तों की गिरफ्तारी हो सकी. अकसर इन मामलों में पुलिस का रवैया असंवेदनशील रहा है, जैसा कि दिल्ली बलात्कार मामले में भी देखा गया है. दोष केवल पुलिस या प्रशासन का नहीं माना जा सकता. पूरे समाज की मानसिकता महिला-विरोधी रही है. आश्चर्य तो तब होता है जब लोग बलात्कार के लिए भी महिलाओं को ही दोषी मानते हैं. उनके पहनावे तथा बाहर घुमने-फिरने को बुरा मानते हैं. एक अधेड़ महिला ने तो यहाँ तक कह दिया कि “लडकियां ही लड़कों को दुष्कर्म के लिए आकर्षित करती हैं, मर्दों की तो जात ही ऐसी है.” ऐसे कई लोग मिल जायेंगे जो लड़कियों को ही नसीहत देने से बाज नहीं आते. पहले 16 दिसंबर को दिल दहला देने वाली घटना और फिर पिछले महीने 5 साल की मासूम गुड़िया के साथ दरिंदगी के मामले ने पूरे देश का दिल दहला दिया. आम जनता सड़कों पर उतर आई. महिलाओं की सुरक्षा, पुलिस तथा प्रशासन का नकारात्मक रवैया तथा शासन व्यवस्था की खामियों पर चर्चा जारी है. देश की राजधानी होने की वजह से दिल्ली की घटना निश्चित तौर पर मीडिया और लोगों को ज्यादा झकझोरती है. लेकिन आँकड़े बताते हैं बिहार में भी यौन उत्पीड़न के मामलों में लगातार बढ़ोतरी हुई है. 2001 से 2013 तक राज्य में 11433 महिलाएँ दुष्कर्म की शिकार हो चुकी हैं. इसका मतलब है कि हर साल औसतन 141 महिलाओं को दरिंदों ने अपनी हवस का शिकार बनाया है. पटना महिला हेल्पलाइन में दर्ज मामलों के अनुसार भी यौन हिंसा के मामलों में हर साल बढ़ोतरी हो रही है. बिहार पुलिस की वेबसाईट के अनुसार जुलाई 2012 तक कॉगनिजेबल(संज्ञेय) अपराधों की संख्या 94188 है. राज्य में 14 से 49 वर्ष की 56 प्रतिशत महिलायें शारीरिक एवं यौन हिंसा की शिकार हैं. केवल सिवान जिले के पुलिस अपराध शाखा से मिले आँकड़ों के अनुसार साल 2012 में जिले में 20 मामले बलात्कार और छेड़खानी के हैं. कई बार तो यह भी देखा गया है एकतरफ़ा प्यार के नाकाम होने या दुष्कर्म के प्रयासों में विफल होने पर तेज़ाब हमले द्वारा लड़की को जिन्दगी भर की सजा दी जाती है. 2011 में अमेरिका के कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत में 1999-2010 के बीच 153 तेजाबी हमले हुए हैं. अकसर इन हमलों में पीड़िता के चेहरे को निशाना बनाया गया. बिहार में भी ऐसे हमले के कई मामले प्रकाश में आ चुके हैं. चंचल और तबस्सुम इसके ताजा उदाहरण हैं. देश के अन्य इलाकों की तरह यहाँ भी मासूम बच्चियों के साथ दुष्कर्म के मामले ज्यादा देखने को मिल रहे हैं. मासूमों के साथ ऐसा घिनौना अपराध मानसिक रूप से विकृत व्यक्ति ही कर सकता है. सवाल यह भी उठता है कि समाज में इतनी मानसिक विकृति क्यों बढ़ रही है ? इस मामले में ए. एन. सिन्हा सामाजिक संस्थान में सामाजिक मनोविज्ञान विभाग के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. एस. एम. ए. युसूफ का कहना है कि “आधुनिक जीवनशैली युवाओं को नैतिक रूप से कमजोर बना रही है. साथ ही शराब और अन्य नशीले पदार्थ उन्हें खुद पर नियंत्रण नही रखने देते. साथ ही संचार के आधुनिक माध्यम उन्हें पथभ्रमित कर रहे हैं.” दूसरी ओर जे. डी. विमेंस कॉलेज में मनोविज्ञान विभाग की एसोसिएट प्रोफ़ेसर अख्तर जहाँ का कहना है संयुक्त परिवार मंि बच्चों का नैतिक विकास ज्यादा अच्छी तरह होता था. परिवार के सदस्यों खासकर बुजुर्गों का डर भी उन्हें अनैतिक कार्यों से दूर रखता था, लेकिन इनदिनों एकाकी परिवार का प्रचलन बढ़ गया है. माता-पिता दोनों बाहर काम करने जाते हैं, इसलिए बच्चों पर अधिक ध्यान नहीं दे पाते. साथ ही युवकों को किसी का डर नही रह गया है इन वजहों से इन घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है. इसके अलावा टेलीविजन, इंटरनेट आदि युवाओं को भटका रहे हैं.” राज्य तथा केंद्र सरकार महिला सशक्तीकरण के लिए अनेकों योजनाएँ चला रही है. राज्य सरकार ने तो पंचायतों में महिलाओं 50 प्रतिशत आरक्षण भी दिया है. सारी योजनाओं का मकसद नारी को मजबूत और सुरक्षित बनाना है. अब सवाल यह उठता है की क्या नारी सच में सशक्त हो रही है? क्या हमारा पुरुषसत्तात्मक समाज नारी की स्वतंत्र और स्वावलंबी छवि को स्वीकार कर रहा है? हर बार जब हम ऐसी किसी घटना के बारे में देखते या सुनते हैं तो सरकार और प्रशासन के मत्थे सारा दोष मढ देते हैं, लेकिन मन में यह सवाल उठाना भी लाजिमी है कि आखिर कब तक समाज और खासकर युवा वर्ग अपनी जिम्मेवारी समझेगा और देश को सम्मानजनक स्थिति में पहुँचाएगा?

Friday, May 17, 2013

सुशासनी माहौल में भी सुरक्षित नहीं महिलाएं



बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अक्सर यह कहते हुए पाए जाते हैं कि आकर देखिये हमारे पटना में रात के दस बजे भी डाक बंगला चौराहे पर लड़कियां आइस्क्रीम खाते हुए मिल जायेंगी. बिहार में बेहतर लॉ एंड ऑर्डर है. इसका जमकर प्रचार-प्रसार भी किया जा रहा है. इसके चलते धीरे-धीरे बिहार सुशासन का पर्याय बनता गया. देश-दुनिया में उनकी चर्चा हुई. उन्हें कई सम्मान मिले. मसलन, त्रिस्तरीय पंचायत में महिलाओं के आरक्षण को 33 प्रतिशत से बढाकर 50 प्रतिशत करना. पार्टी से अलग लाईन लेते हुए संसद में महिला आरक्षण विधेयक का समर्थन करना. महिला थाने की स्थापना करना. और तो और स्कूली छात्राओं को साईकिल बांटकर तो इन्होंने खूब लोकप्रियता हासिल की.

अव्वल तो ये कि इन फैसलों को जमकर प्रचारित-प्रसारित भी किया गया, और इसका फायदा भी खूब बटोरा गया. लेकिन सुशासन के पर्याय के रूप में बिहार को स्थापित करने की कोशिश में लगे नीतीश के सुशासन का आवरण अब उतरने लगा. खुद बिहार पुलिस की वेबसाईट यह बताती है कि जुलाई 2012 तक कॉगनिजेबल (संज्ञेय) अपराधों की संख्या 94 हज़ार 188 है. महिलाओं की बेहतरी को तत्पर नीतीश के सुशासनी माहौल में जुलाई 2012 तक कुल 562 रेप की घटनायें हो चुकी हैं. ये आंकड़े बिहार पुलिस की वेबसाईट बताती है, जबकि वास्तविक आंकड़े भयावह स्थिति दर्शाने लगी है. वेबसाईट की बात छोड़ भी दें तो गत मार्च को विधानसभा में प्रभारी गृह मंत्री विजय कुमार चौधरी ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि अक्टूबर 2012 तक बलात्कार के 823 मामले दर्ज किये गये हैं. नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े को अगर देखें तो 2008 में महिलाओं के खिलाफ 6186 घटनायें दर्ज की गयी, 2011 में यह घटना बढ कर 10 हज़ार 231 हो गयी. मतलब यह कि मात्र तीन वर्षों में महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा में 65 प्रतिशत की बढोत्तरी हुई है. वहीं बिहार में 14 से 49 वर्ष की 56 प्रतिशत महिलायें शारीरिक एवं सेक्सुअल हिंसा की शिकार हैं. महिलाओं के लिये खासी चिंतित रहने वाली इस सरकार में हाल के दिनों में लगातार हिंसा बढ़ी हैं. औसतन बिहार के किसी भी जिले से बलात्कार या महिला उत्पीड़न की घटना रोज आती है. सरकार सा अधिकारी महिलाओं की सुरक्षा या स्वाभिमान को लेकर बिल्कुल लापरवाह हैं. इसके कई उदाहरण हैं.

बीते सितंबर को ही राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने बिहार की सीवान जिले में तेजाब हमले में बुरी तरह जख्मी हुई एक किशोरी के मामले को गंभीरता से लेते हुए राज्य सरकार से इस पीडिता के उपचार के लिए तत्काल वित्तीय मदद मुहैया कराने का आग्रह किया था. आयोग के मुताबिक, तेजाब हमले की पीडितों की मदद के लिए कई राज्यों ने वित्तीय मदद के प्रावधान किए हैं, लेकिन बिहार में इससे जुडा कोई कानून नहीं है. आयोग को आदेश दिये हुए सात महीने गुजर गये हैं लेकिन वित्तीय मदद की बात तो दूर राज्य सरकार का कोई अधिकारी ने पीड़िता के परिवार से संपर्क करने की कोशिश भी नहीं की. सीवान के हरिहंस गांव में बीते 26 सितंबर को कुछ युवकों ने 14 साल की इस लडकी पर तेजाब फेंक दिया था. इस हमले में यह लडकी बुरी तरह से झुलस गई है. लड़की के पिता आरिफ फिलहाल सफदरजंग में अपनी बेटी का इलाज करा रहे हैं. आरिफ कहते हैं कि साहब क्या-क्या करें, सरकार से मदद मांगने जायें, कोर्ट का चक्कर लगायें या बेटी का इलाज करायें. आरिफ ने कई दफे स्वास्थ्य विभाग से बात भी की, लेकिन अबतक आरिफ को आश्वासन ही दिया जा रहा है. यह अकेला मामला नहीं है. अभी हफ्ते भर पहले पूर्वी चंपारण के कल्याणपुर थाना क्षेत्र में 10वीं की छात्रा के साथ चार लोगों ने गैंगरेप करने के बाद उसके शरीर पर तेजाब डाल दिया और गला दबाकर उसकी हत्या करने की कोशिश की.

राजधानी से महज बीस किलोमीटर दूर मसौढ़ी थाना के क्षेत्र की दो बहनों पर भी बीते अक्टूबर में ही एसिड से हमला किया गया था. फिलहाल इसकी मदद को पूर्व सांसद व रालोसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा सामने आये हैं. यही वजह है कि यह मामला उभर कर सामने आया है नहीं तो अन्य घटनाओं की तरह ही दफन हो जाता. ठीक इसी नवरात्रा में सप्तमी के दिन 19 वर्षीय चंचल को एसिड से जला दिया जाता है. काल की तरह आयी उस रात को चंचल याद करते हुए सहम जाती है. उस रात उसे ऐसा लगा था मानो किसी ने आग की भट्ठी में झोंक दिया हो. चंचल कहती है आप मेरी तस्वीर पूरी दुनिया को दिखाइये ताकि लोग देख सकें कि इस सुशासन में मेरा क्या हाल है. लोग सच्चाई को जान सकें. 21 अक्टूबर की रात, मां-पिता और दोनों बहनें छत पर होती हैं. कल कन्या पूजन है, इस विजयादशमी को कैसे मनायेंगे यही सब बतियाते हुए सारे लोग छत पर ही सो जाते हैं. रात के लगभग बारह बजे चंचल अपनी 16 साल की बहन सोनम के साथ छत पर सो रही होती है तभी उसी के मुहल्ले के चार लड़के आते हैं और सो रही चंचल व सोनम के शरीर से रजाई हटा कर उसपर एसिड डाल देते हैं. सुंदर, चुलबुली व मां-पापा की लाडली चंचल बुरी तरह झुलस जाती है. पहले तो उसे और उसके घरवाले को लगता है कि लड़कों ने गरम तेल डाला है. लेकिन माजरा समझते देर नहीं लगती है. चंचल को ही बचाने के क्रम में उसकी बहन सोनम का दायां हाथ भी बुरी तरह झुलस जाता है. पिता शैलश पासवान व माता सुनैना देवी को कुछ समझ में नहीं आता है कि क्या किया जाय. वे आस-पड़ोस, गली-मुहल्ले सभी से जाकर मदद की गुहार लगा रहे होते हैं लेकिन कोई भी मदद के लिये आगे नहीं आता है. लेकिन किसी तरह मां-पिता चंचल व सोनम दोनों केा लेकर पीएमसीएच पहुंचते हैं जहां उसका इलाज शुरू होता है. सूबे की व्यवस्था की विडंबना देखिये कि घटना के छह महीने बीत जाने के बाद भी अबतक राज्य सरकार को कोई सक्षम पदाधिकारी पीड़ित परिवार से मिलने नहीं पहुंचा है.

घटना के पांच महीने बीत जाने के बाद महिला आयोग को ध्यान आता है और वह खानापूर्ति के लिये 10 अप्रैल को चंचल और उसके परिवार वाले से मिल आती है. इसके बाद से अबतक आयोग की तरफ से कोई भी ठोस पहल नहीं की गई इस दिशा में कि कैसे चंचल को न्याय मिल सके, उसके इलाज की उचित व्यवस्था की जा सके. शैलेश पासवान आज भी डर-डर कर ही जी रहे हैं वे साफ कहते हैं कि घटना को अंजाम देने वाले दबंग परिवार से आते हैं और आज भी मुकदमा उठा लेने को लेकर धमकी दिया जाता है. क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड की कल्पना तक नहीं कर सकने वाले शैलेश पासवान बीपीएल के लाल कार्ड वाले हैं. दैनिक मजदूर हैं. बेटी को न्याय और उचित इलाज मिल सके इस फिराक में वे सभी दरवाजे को खटखटा कर निराश हो चुके होते हैं. इसी बीच स्थानीय पत्रकार व समाजसेवी निखिल आनंद उनके लिए उम्मीद की किरण बन कर आते हैं.

निखिल फेसबुक पर एक पेज हेल्प ऐसिड अटैक विक्टिम के नाम से बनाते हैं. इसी पेज के माध्यम से राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष व पूर्व राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा को इस घटना के बारे में जानकारी मिलती है. इसके बाद कुशवाहा कई दफे पीड़ित परिवार से जाकर मुलाकात करते हैं. फिलहाल कई दिनों से कुशवाहा चंचल, सोनम, उसके मां-पिता व पत्रकार निखिल के साथ रांची रहकर आये हैं. रांची के देवकमल अस्पताल के डायरेक्टर व जानेमाने पलास्टिक सर्जन डॉ. अनंत सिन्हा ने कहा है कि जून से चंचल का इलाज शुरू होगा. डॉ. के अनुसार चंचल को लगभग 11-12 सर्जरी से गुजरना पड़ेगा. अनंत सिन्हा अस्पताल के चार्ज व अपनी फीस नहीं लेंगे. बावजूद इसके सर्जरी में लगभग 15 लाख रूपए खर्च होने की संभावना है. फेसबुक के जरिये मदद की भी अपील की जा रही है. हालांकि इस बीच खुद डॉक्टर अनंत सिन्हा व उपेंद्र कुशवाहा ने कहा है कि पैसे की कमी की वजह से इलाज नहीं रोका जायेगा. घटना को जानते समझते हुए चंचल और सोनम से मिलने का मौका मिलता है. चंचल की जीवटता और हौसला देखकर हर कोई आश्चर्य से भर उठता है. चंचल बहुत आराम से नहीं बोल पाती है. लेकिन फिर भी वह कोशिश करती है कि अपनी पीड़ा, अपना दर्द वो खुद बताये. साथ ही यह भी कहना नहीं भूलती है कि वह कम्पयूटर इंजीनियर बनना चाहती थी.

थोड़ी ठहर कर वह कहती है पहले इलाज करा लूं, अपना मुकाम तो मुझे पाना ही है. अपने चेहरे को दुपट्टे से ढ़की चंचल हमसे बात कर रही होती है. उसे बोलने में भी तकलीफ हो रही है. रह-रह कर वह जलन से कराह उठती है. अपने हाथ में उसकी पुरानी तस्वीर को देख पूरा मस्तिस्क सन्न से रह जाता है, एकदम शून्य. वाकई देख नहीं सकने वाला चेहरा दरिंदों ने बना दिया है. आंखें गल चुकी हैं. होंठ का पता ही नहीं चलता है. चंचल का खूबसूरत और प्यारा सा चेहरा पहले जिसने भी देखा होगा वह अब उसे पहचान नहीं पायेगा. चंचल के इस चेहरे को देख एकबारगी तो यह जरूर ख्याल आता है कि तालिबान और अफगानिस्तान में रेपिस्टों को दी जाने वाली सजा ही सही है. चंचल ढ़ंग से बोल नहीं पाती है. वह भर पेट भोजन भी नहीं कर पाती है. नींद भी उसे कम ही आती है. जलन से वह हमेशा परेशान रहती है. इसके बाद भी चंचल की जीवटता इस सभ्य समाज को रोज तमाचा जड़ता है. चंचल के पिता शैलेश पासवान कहते हैं कि अबतक प्रशासन की ओर से कोई मदद नही की गई है. बड़े अधिकारियों की तो छोड़िये मुखिया-सरपंच को फुरसत नही हुई हमसे सहानुभूति के दो शब्द कहने की. मां सुनैना देवी को अब समाज से ही उम्मीद है. वे कहती हैं कि अगर समाज चाहे तो हमारी दुनिया फिर से बस सकती है. निखिल कहते हैं कि घटना के सात महीने हो चुके हैं लेकिन अबतक 164 का बयान तक नहीं लिया गया है, जबकि पीड़िता डीएम से गुहार लगा चुकी है.

बताते चलें कि इस मामले में आरोपी अनिल, राज, घनश्याम और बादल जेल में हैं. स्थानीय लोग बताते हैं कि इन लड़कों का चरित्र कभी ठीक नहीं रहा है. वहीं जानकारी मिलती है कि इससे पहले भी यह शेरपुर में छेड़खानी की घटना कर चुका है. शैलेश पासवान कहते हैं कि इन चारों के खिलाफ दो साल पहले भी स्थानीय थाने में शिकायत की थी, लेकिन प्रशासन ने कभी गंभीरता से नहीं लिया. उपेंद्र कुशवाहा इस मुददे पर राजनीति से उपर उठकर कहते हैं कि राज्य सरकार को चंचल की मदद के लिये आगे आना चाहिये, और वह ऐसा कानून बनाये कि आगे ऐसी घटना न हो.

(14 मई 2013 को palpalindia.com में प्रकाशित)

आस्था या अंधविश्वास

पिछले कुछ समय से जब भी किसी तीर्थ स्थान या ज्यादा टी.आर.पी.(टूरिस्ट रेटिंग पॉइंट) वाले मंदिरों में गई तो वहाँ से लौटने के बाद मन में एक ही विचार आया कि अगली बार ऐसी किसी जगह नहीं जाना है, लेकिन आदतन कुछ दिनों के बाद सब भूलकर फिर वही गलती कर बैठती हूँ. इस बार मेरे इस लेख का उद्देश्य भी यही है कि अपनी इस भूल को याद रख सकूँ. वैसे मेरे इस विचार का मतलब यह कतई न समझा जाए कि मेरी ईश्वर में आस्था नहीं है या खत्म हो गई है. मेरी आस्था आज भी ईश्वर पर उतनी ही है जितनी कुछ सालों पहले थी जब मैं घंटो अपना समय पूजा-पाठ के कामों में बिता दिया करती थी. फर्क बस इतना आया है अब इन अंधविश्वासों और आडंबरों को तर्क की दृष्टी से देखने की आदत-सी हो गई है. ईश्वर में आस्था अब भी बरकरार है लेकिन धर्म में व्याप्त बुराइयों से मन दुखी हो जाता है. कई लोगों को मेरे इस विचार से समस्या हो सकती है, लेकिन मेरा उद्देश्य केवल उन बुराइयों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करना है जिन्होंने धर्म और धार्मिक जगहों को गंदा कर दिया है. अपने घर में बने छोटे से मंदिर या मुहल्ले के मंदिरों में सर झुकाते वक्त मन में जितनी श्रद्धा उमड़ती है, तीर्थ स्थान या सुप्रसिद्ध मंदिरों में इसका आधा भी महसूस नहीं होता. इन जगहों में जो बातें दिमाग में चलती रहती हैं वे कुछ इस प्रकार हैं- जूते-चप्पल ठीक से रखो कहीं चोरी न हो जाएँ, कहीं ये हमें ठग तो नहीं रहा, पंडितों के चक्कर में मत पड़ो वरना पॉकेट खाली हो जाएगी, उफ़ इतनी गंदगी है जैसे मंदिर नहीं कचराघर हो, किसी तरह जल्दी दर्शन हो जाए लाइन में खड़े-खड़े हालत खराब हो गई और लाख कोशिशों के बावजूद आखिर हम ठगी के शिकार बन ही गए, आदि. मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि ऐसा सोचने वाली मैं अकेली नहीं, ज्यादातर दर्शनार्थियों के दिमाग में यही बातें चल रही होती हैं. अब ऐसे में पूजा-पाठ में कैसे मन लग सकता है. बचपन से लेकर आज तक जब भी कहीं घुमने की योजना बनी तो किसी न किसी प्रसिद्ध मंदिर या तीर्थ-स्थान का चुनाव किया गया. ऐसा होना लाजिमी भी है मंदिरों के इस देश में मध्यवर्ग की मानसिकता के अनुकूल जो है, एक पंथ दो काज जो हो जाते हैं. लड़कपन में भले ही समझदारी न हो लेकिन माता-पिता को परेशान देखकर एहसास तो हो ही जाता था कि भगवान् के दर्शन करना इतना आसान नहीं है, खासकर जब पास में पैसे कम हों. झारखंड का देवघर शिवभक्तों के लिए बहुत ही पावन भूमि मानी जाते है, लेकिन यहाँ के पंडा (पंडित) के जाल से बचना लगभग नामुमकिन है. खासकर तब जब आपको कोई कर्मकांड भी कराना हो. काशी में भी तक़रीबन यही स्थिति है. मंदिर में प्रवेश करते ही हर दुकानदार इस तरह अपने दुकानों में अपने जूते-चप्पल रखने की विनती करते हैं जैसे आपके जुते रखते ही उनका दुकान पवित्र हो जाएगा. इसके बाद आपको पूजा हेतु आवश्यक सामाग्री देकर (उनके हिसाब से) पूजा करने भेज दिया जाएगा. वापस आने पर पता चलता है की उस सामान का आपसे दुगुना-तिगुना दाम वसूला जा रहा है. आप चाह कर भी न कुछ कह पाएंगे और न ही कुछ कर पाएंगे क्योंकि आपको पापी और नास्तिक साबित करने में एक मिनट की भी देरी नहीं की जाएगी. आपके साथ ऐसा बर्ताव किया जाएगा जैसे आप उस दुकान में जबरन घुस आए हों. ऐसा तक़रीबन हर बड़े मंदिरों में आपको आसानी से देखने को मिल जाएगा. इन मंदिरों में आपको भगवान की मुख्य मूर्तियों के अलावा छोटी-बड़ी सैकड़ों मूर्तियाँ नजर आएँगी और उसके बगल में एक पंडित नजर आएगा जो आपको वहाँ पैसे चढ़ाने की नसीहत देगा. अगर आपने उसकी बात अनसुनी की तो आपको भला-बुरा सुनाया जाएगा और उसी ईश्वर के कहर का भी खौफ दिलाया जाएगा. महाराष्ट्र का त्रयंबकेश्वर हो या अन्य कोई ज्योतिर्लिंग सबकी तक़रीबन यही स्थिति है. कोलकाता के प्रसिद्ध कालीबाड़ी में तो पंडित लाइन लगाकर ग्राहकों (भक्तों) का इंतजार करते हैं ताकि वे उनको अपने जाल में फंसा सकें. वीआईपी दर्शन का लालच भी दिया जाता है. मंदिर परिसर के पास ही पुलिस थाना है और सिपाही मंदिर में चौकसी करते नजर आते हैं इसके बावजूद यह सब खुले आम हो रहा है. जब थाना प्रभारी से इस बारे में बात की गई तो उन्होंने कहा कि वे इससे निबटने में सक्षम हैं लेकिन उनके हाथ बंधे हुए हैं. कोई भी सरकार धार्मिक विवादों से परहेज ही करती है. इसके बावजूद पुलिस समय-समय पर इन पर शिकंजा कसती रहती है, लेकिन जागरूकता के अभाव और अंधविश्वास के कारण इनका कारोबार फल-फूल रहा है. इनदिनों शिर्डी के साईं बाबा की लोकप्रियता काफी बढ़ रही है. जाहिर सी बात है यहाँ के लोगों का धंधा भी जोर-शोर से चल रहा है. यहाँ पंडितों का खतरा तो नहीं लेकिन शिर्डी जाना बहुत महँगा पड़ सकता है. होटल का रेट दिन और भीड़ के हिसाब से तय किया गया जाता है. बुधवार और गुरुवार रेट सबसे अधिक होता है. शनिवार और रविवार को छुट्टी का दिन होने की वजह से ज्यादा दर्शनार्थी जुटते हैं सो उस दिन कमरे के लिए मोटी रकम चुकानी पडती है. 1-2 घंटे के लिए कमरा लेना भी काफी महँगा है. गया का विश्वप्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर हो या बौद्धों की सबसे पावन-भूमि बोध गया, पैसे वसूलने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं. बोध गया में तो खासकर विदेशियों को निशाना बनाया जाता है. पूरे मंदिर-परिसर में उनसे छोटी-से-छोटी चीज के लिए मनमानी रकम वसूली जाती है. भले ही भारत मंदिरों का देश हो लेकिन यहाँ के मंदिरों की दशा काफी बुरी है. एक तो ठग हर मोड़ पर आपका इंतजार करते रहते हैं वहीँ दूसरी ओर गंदगी आपको नाक-भौं सिकोड़ने पर मजबूर कर देती है. अंधश्रद्धा के आगे सरकार ने भी घुटने टेक दिए हैं क्योंकि वह भी अपना वोट-बैंक ख़राब नहीं कर सकती. ऐसे में अगर मेरा मन इन तथाकथित पवित्र जगहों पर जाने का नहीं करता तो क्या मैं नास्तिक हूँ? (18 मार्च 2013 को जनसत्ता "दुनिया मेरे आगे" में प्रकाशित)

Thursday, November 8, 2012

शर्मिला तुझे सलाम

वर्धा में एक बार फिर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्द्यालय के छात्र-छात्राएँ मोमबत्ती की रौशनी में उम्मीद की किरण ढूँढते नजर आये. भले ही सरकार और मीडिया के लिए यह अनशन कोई मायने न रखे लेकिन यहाँ इरोम चानू शर्मिला के लिए सबके दिलों में दर्द था. विश्वविद्द्यालय के नौजवानों ने इरोम के संघर्ष को समझा ही नहीं बल्कि महसूसा भी. छात्रों द्वारा मणिपुर में 12 सालों से अनशन पर बैठी इरोम के समर्थन में एक कार्यक्रम ‘इरोम शर्मिला से एक संवाद’ आयोजित किया गया. इसका असर वहाँ मौजूद हर शख्श के चेहरे पर साफ़ दिख रहा था. पहले एक डॉक्यूमेंट्री दिखाई गई. डॉक्यूमेंट्री यह बताने को काफी थी की किस तरह आफ्सपा क़ानून का सहारा लेकर सैनिकों द्वारा अत्याचार किया जाता है. पूरे आयोजन के दौरान मौजूद लोगों के चहरे पर क्षोभ और निराशा साफ देखी जा सकती थी. आयोजन के दौरान कुलपति विभूति नारायण ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की और कहा की “अब और इंतजार नहीं किया जा सकता. इरोम की आवाज सरकार तक पहुंचाने के लिए राज्य को झकझोरने की आवश्यकता है.” कुलपति ने कार्यक्रम के संयोजक कमला थोकचोन, चित्रलेखा, प्रकाश और संजीव को बधाई देते हुए इरोम के संघर्ष को आगे बढ़ाने की अपील की. प्रसिद्ध कथाकार संजीव ने काफी भावुक होते हुआ यही सवाल किया कि “क्या हम सब इरोम के मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं?” वहीँ डिस्टेंस एजुकेशन के निदेशक धूमकेतू ने मीडिया की उदासीनता पर खिन्नता व्यक्त करते हुए पत्रकारों से आगे आने की अपील की. स्वामी सहजानंद सरस्वती संग्रहालय के राकेश श्रीमाल ने मणिपुर और इरोम के संघर्ष की पूरी तस्वीर श्रोताओं के सामने रखी. इस अवसर पर छात्रों ने भी इस लड़ाई को समूचे देश में फैलाने की बात कही. कार्यक्रम के अंत में एक कैंडिल मार्च किया गया जो विश्विद्द्यालय के ही गांधी हिल में समाप्त हो गया. इरोम शर्मिला के दर्द को मणिपुर के लोगों से अधिक शायद कोई नहीं समझ सकता. यही वजह है कि मणिपुर की कमला थोकचोन ने वर्धा जैसे छोटे शहर में भी इरोम और मणिपुर की जनता के दर्द से सबको वाकिफ कराने के लिए लगातार प्रयासरत हैं. अपनी कोशिशों और कुछ मित्रों के सहयोग से वह ऐसा करने में सफल भी हुई हैं. पिछले साल भी अनशन के 11 वर्ष बीतने पर विश्वविद्द्यालय के छात्र सड़कों पर उतरे थे और शहर में घूम-घूम कर लोगों को इस अनशन के बारे में बताया था. इरोम चानू शर्मिला के अनशन के 12 साल पूरे हो गए, लेकिन आज तक देश का आम आदमी इससे अनजान है. 12 साल के अहिंसात्मक अनशन के बावजूद न तो सरकार की नींद खुली और न ही मीडिया की. ऐसा लगता है मानो यह अनशन महज एक औपचारिकता बनकर रह गई है. हर साल कुछ लोग सामने आते हैं और सरकार को जगाने की असफल कोशिश करते है. इसे विडंबना कहें या हमारी बदनसीबी, एक क्रूर क़ानून पूरे पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर के लोगों को स्वछंद होकर जीने के हक़ से महरूम कर रहा है और हमारे देश लोगों को इसका अंदाजा भी नहीं है. 1958 से चले आ रहे सशस्त्र बल विशेष अधिकार क़ानून (आफ्स्फा) ने पूर्वोत्तर के लोगों का जीवन नरक बना दिया है. सेना के खौफ के साए में जी रही जनता को हर वक्त अपने सर पर खतरा मंडराता नजर आता है. 1956 में नागा विद्रोहियों से निबटने के लिए पहली बार मणिपुर में सेना भेजी गई. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इसे अस्थाई बताते हुए 6 महीने में वापस बुलाने की बात कही थी, लेकिन 1958 में आफ्सपा लागू कर दिया गया और 1972 में पूरे पूर्वोत्तर में इसका विस्तार कर दिया गया. पाँच दशकों से अधिक वक्त बीत गया लेकिन आज भी पूर्वोत्तर से लोकतंत्र नहीं बल्कि सेना का राज है. इस दौरान सैकड़ों निर्दोष लोगों का खून बह चुका है. बलात्कार और हत्या की घटनाएँ आए दिन घटती रहती हैं. अन्ना हजारे को लिखे एक पत्र में इरोम ने कहा था कि, “अन्ना जी आप भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं और देश में सबसे अधिक भ्रष्टाचार तो मणिपुर में हो रहा है.” इसके बावजूद मणिपुर के लिए कोई आगे नहीं आया. 4 नवम्बर 2000 को इंफाल 10 किलोमीटर दूर मालोम गाँव असम राइफल्स के जवानों ने बस स्टैंड पर बैठे आम लोगों पर गोलियाँ चला दी जिसमें 10 लोग मारे गए. यह सबकुछ इरोम शर्मीला के सामने हुआ. इरोम से यह सब देखा न गया और उसने आफ्सपा क़ानून के खिलाफ अनशन शुरू कर दिया. इस आन्दोलन को दबाने के लिए सरकार ने इरोम पर धरा 309 लगाकर आत्महत्या की कोशिश के आरोप में 21 नवंबर 2000 को गिरफ्तार कर जेल में दाल दिया. तब से शर्मीला लगातार हिरासत में ही है. उसे जबरन नाक से तरल पदार्थ दिया जा रहा है. जिस अस्पताल में उसे रखा गया है उसे जेल का रूप दे दिया गया है. एक साक्षात्कार में इरोम ने कहा था कि अनशन शुरू करने से पहले वह पूरी रात नहीं सो पाई थी, एक प्रश्न वह खुद से कर रही थी- “शांती की शुरुआत कहाँ और अंत कहाँ”. आज यही प्रश्न मणिपुर ही नहीं बल्कि पूरे देश के सामने मुँह बाये खड़ा है. क्या है आफ्स्फा क़ानून: 1. संदेह के आधार पर बिना वारंट कहीं भी घुसकर तलाशी ली जा सकती है. 2. किसी को भी गिरफ्तार किया जा सकता है. कहीं भी लोगों के समूह पर गोली चलाई जा सकती है. 3. जब तक केंद्र सरकार की मंजूरी न मिले सशस्त्र बलों पर किसी तरह की दंडात्मक कार्रवाई नहीं की जा सकती.

Tuesday, August 14, 2012

गीतिका का गुनाहगार कौन...?

पूर्व विमान पारिचारिका (एयर होस्टेस) गीतिका शर्मा की ख़ुदकुशी ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं. 23 साल की गीतिका की ख़ुदकुशी के पीछे हरियाणा के गृह राज्य मंत्री गोपाल गोयल कांडा द्वारा मानसिक प्रताड़ना की बात सामने आई है. सुसाइड नोट की बिना पर उक्त मंत्री के खिलाफ एफ. आई. आर. भी दायर किया गया. टीवी चैनलों को एक और मसाला मिल गया. हर चैनल इस आत्महत्या की मिस्ट्री को सबसे पहले सुलझाने में लगा है. खबर को सनसनीखेज बनाने की हर संभव कोशिश जारी है, लेकिन पूरे हंगामे में अहम बात ही गौण होती जा रही है. महज 23 वर्ष की आयु में गीतिका ने आखिर कितनी प्रताड़ना झेली होगी की उसे मौत को गले लगाना पड़ा? एक राज्य का गृह मंत्री जब ऐसी हरकत कर सकता है तो महिलाएँ खुद को कहाँ सुरक्षित महसूस करेंगी? जिस उम्र में लड़कियाँ अपने करियर और शादी के सपने देखती हैं उस उम्र में गीतिका ने दुनिया को अलविदा कह दिया. सच तो यह है कि ये किसी एक लड़की की कहानी नहीं, बल्कि अच्छे करियर का सपना देखने वाली ऐसी हजारों लड़कियों की कहानी है जो शारीरिक और मानसिक यातना की शिकार हैं. भले ही मीडिया में इक्का-दुक्का मामले सामने आते हैं, लेकिन यह हजारों कामकाजी महिलाओं और सुंदर भविष्य का सपना देखने वाली महिलाओं की कहानी है. बात भले ही आत्महत्या तक न पहुँचे लेकिन प्रताड़ना झेलने के लिए ये अभिशप्त हैं. इनमें से कई परिस्थितियों का डट कर सामना करती हैं तो कुछ अपने सपनों को समेट लेती हैं, जबकि कई इस क्रूर समाज की शिकार बन जाती हैं. इसके बावजूद आरोप इन्हीं महिलाओं पर लगाया जाता है, क्योंकि इन्होंने सपने देखने का जुर्म किया है. आम लोगों की धारणा यही होती है कि जो महिला ज्यादा महत्वाकांक्षी होती हैं उन्हीं के साथ ऐसा होता है. खुद को बचाने का इससे अच्छा बहाना और क्या हो सकता है इस समाज के पास. हमारे देश के सबसे बड़े वर्ग (मध्यवर्ग) की कुछ ऐसी ही धारणा है. यही वजह है आज भी लड़कियों की आजादी पर पाबंदियाँ लगाई जाती हैं. उन्हें हर कदम पर इस क्रूर समाज से बचाने के लिए उनके सपनों को रौंदा जाता है. जिस तरह बड़ी मछलियाँ छोटी मछलियों का शिकार करती हैं उसी तरह किसी भी संस्थान में ऊँचे पदों पर आसीन व्यक्ति खुद को शिकारी समझता है. ऐसा नहीं कि केवल महिलाओं को ही परेशान किया जाता है. पुरुषों के सामने भी समस्याएँ आती हैं, लेकिन इस पुरुषसत्तात्मक समाज में महिलाओं को प्रताड़ित करना आसान और आनंददायक समझा जाता है. उन्हें निचले स्तर का ही माना जाता है. महिलाओं को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित करने की कोशिशें चलती रहती हैं. हर कोई मौके की तलाश में तैयार रहता है. सामनेवाले को कमजोर पाते ही वह उसपर हावी होना चाहता है. ऐसा ही कुछ गीतिका और ऐसी हजारों लड़कियों के साथ हो रहा है. आश्चर्य की बात यह है कि जो अपराधी है उसे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन जिन महिलाओं को यह भुगतना पड़ता है वह बदनाम हो जाती हैं. महिलाओं के साथ छेड़छाड़ का मामला हो या बलात्कार का, समाज द्वारा महिलाएँ ही बहिष्कृत होती हैं, पुरूष अपराधी नहीं. ज्यादातर लोग मानते हैं कि ग्रामीण तथा अनपढ़ महिलाएँ हिंसा या अपराध की शिकार ज्यादा होती हैं, लेकिन सच तो यह है कि पढ़ी-लिखी, कामकाजी महिलाएँ हर दिन इस इस समस्या जूझ रही हैं. महानगरों में रहनेवाली ज्यादातर महिलाओं को हर दिन इस समस्या का सामना करना पड़ता है. पिछले दिनों जब महिला पत्रकारों की स्थिति पर एक शोध किया गया तो ज्यादातर महिलाओं ने यह स्वीकार किया कि महिलाओं को प्रताड़ित करने की कोशिशें चलती रहती हैं, लेकिन किसी ने भी खुद को इसका शिकार बताने परहेज किया. मतलब साफ़ है कि उन्हें अपनी छवि धूमिल होने का डर रहता है. यही वजह है कि उनकी समस्याएँ सबके सामने नहीं आ पातीं. समय के साथ लोगों के विचार बदले हैं और महिलाओं को कार्यक्षेत्र में महत्व भी मिल रहा है. लेकिन एक बड़ा वर्ग आज भी औरतों को अपने पावों की जूती समझता है. 10 सालों से समाचार चैनल में काम करने वाली "एक महिला पत्रकार का मानना है कि पुरुष अगर थोड़े कम योग्य हों तो चल जाता है, लेकिन महिलाओं को अगर काम करना है तो उसे बिलकुल परफेक्ट होना पड़ेगा." पुरुषवर्ग हर कदम पर अपनी महिला सहकर्मियों का लाभ उठाने की कोशिश करते हैं. कई बार वे सफल भी हो जाते हैं. अगर सफल न भी हुए तो भले ही उस महिला को नौकरी छोड़नी पड़े उनका कुछ नहीं बिगड़ता. गीतिका ने जाते-जाते इतनी हिम्मत तो दिखाई कि मंत्री का नाम सबके सामने आ पाया. ऐसी हिम्मत अगर वह जीते-जी दिखाती तो शायद उसे ही बेगैरत का खिताब दे दिया जाता. अपराध किसी एक का नहीं बल्कि पूरे समाज का है जो ऐसे अपराधी को पनाह देता है. इस तरह के सभी अपराधियों को समाज से बहिष्कृत करने की जरूरत है. जो इंसान औरत को उपभोग या मनोरंजन की वस्तु समझता है उसे इंसान कहलाने का हक नहीं....

Monday, November 7, 2011

11 साल हो गए, अब तो जागो



मणिपुर में सैन्य बलों को मिले विषेशाधिकारों का विरोध कर रही इरोम शर्मिला को अनशन पर बैठे 11 साल पूरे हो गए । 4 नवंबर 2000 को इरोम चानू शर्मिला ने सैन्य बलों द्वारा जनता पर किये जा रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन आज तक उनकी मांग को मानना तो दूर बातचीत करना भी जायज नहीं समझा गया। आश्चर्य की बात है कि मीडिया ने भी इस मामले में चुप्पी साध ली है ।
वर्धा के युवा सड़कों पर

    जनता, सरकार और मीडिया की इसी चुप्पी को तोड़ने के लिए गत 5 नवंबर(शनिवार) को महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर वर्धा के युवा सड़क पर उतरे । विश्व इतिहास में अब तक की सबसे लंबी चलने वाली भूख हड़ताल के समर्थन में युवाओं ने रैली निकाली और धरना दिया । इरोम तुम्हारे सपनों को मंजिल तक पहुचायेंगे, राजकीय कानूनी हिंसा बंद करो जैसे कई नारे वर्धा की सड़कों पर गूंज रहे थे । वैसे तो यह रैली महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रिय हिंदी विश्वविद्यालय से निकली लेकिन वर्धा के लोगों खासकर युवाओं ने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया । 10 बजे सुबह निकला यह जुलुस शहर का चक्कर लगाते हुए जिलाधिकारी कार्यालय के सामने धरने पर बैठा । धरना के दौरान शर्मिला के लिए नारेबाजी के साथ-साथ नुक्कड़ नाटक का भी प्रदर्शन किया गया । युवाओं ने सांकेतिक रूप से एक दिन का अनशन भी किया। इसका उद्देश्य सरकार की नींद तोड़ने के साथ-साथ जनता को भी जागरूक करना था ।
मीडिया और हिंदी पट्टी की नज़र में
 
मणिपुर का जिक्र आते ही अधिकांश लोग कन्नी काटना शुरु कर देते हैं । कई दफा यहां तक सुनने को मिलता है कि अच्छा तो मणिपुर अपने ही देश में है । अगर दिल्ली का ही लें तो हमारे पुर्वोत्तर के साथियों को कमरा ढूंढने से लेकर अपनी स्वच्छ छवि तक के लिये काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है । देशभक्ती का तगमा लगाये अघिकांश लोगों के लिये सिर्फ चिंकीज होते है । एक सवाल जो लाजमी है कि क्या इसी तरह का कोई अनशन बिहार, झारखंड, यूपी जैसे किसी राज्य से हो रहा होता तो उसका भी यही हश्र होता ? क्या मीडिया तब उसे दरकिनार कर पाती ? वैसे भी जिस राज्य से मात्र दो सांसद हो और जिस कार्यक्रम से कोई खास टीआरपी नहीं मिलने जा रही हो उसके लिये कोई क्यों मगजमारी करे ! 
उद्देश्य से भटका आफ्सपा
 
1958 में नागा विद्रोह को नियंत्रित करने के लिए पहली बार आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट(आफ्सपा) कानून अमल में लाया गया । शुरूआती दौर में इसका उपयोग केवल नागा को नियंत्रित करने के लिए किया गया और इसे जल्द हटाने की बात भी कही गयी लेकिन ऐसा नहीं हुआ । इसके विपरीत यह कानून पूर्वोत्तर के सात राज्यों से होता हुआ काश्मीर तक पहुंच गया । इस कानून के अनुसार सैन्य बलों को यह अधिकार है कि वे शक के आधार पर किसी को भी गोली मार सकते हैं और उनपर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती । पिछले 53 वर्षों में हजारों बार यह साबित हो चुका है कि अफ्सपा लोकतंत्र पर काला धब्बा है । इस बात को सरकार भी दबी जुबान में स्वीकार करती आई है । 2004 में भारत सरकार द्वारा गठित रेड्डी की अध्यक्षता वाले कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि चाहे जो भी कारण रहे हों, ये कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी के साधन का एक प्रतीक बन गया है। हजारों निर्दोशों को गोलियों से भून दिया गया । महिलाओं के साथ दुराचार, बलात्कार, बच्चों का कत्ल जैसे कृत्यों को सरेआम अंजाम दिया जा रहा है । हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएं इतनी आम हो गयी हैं कि वहां जब कोई घर से निकलता है तो घरवाले इस बात से भयभीत रहते हैं कि पता नहीं वे वापस लौटेंगे या नहीं । इरोम चानू शर्मिला ने जनता को चैन और सुकून की जिंदगी दिलवाने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की । 
और अंत में
 
      सैन्य बलों ने इरोम को जबरदस्ती कृत्रिम साधनों के जरिए जिंदा तो रखा है लेकिन उनका शरीर बिल्कुल बेजान हो चुका है । इसके बावजूद शर्मिला के इरादे कमजोर नहीं पड़े हैं । वह ठीक से बोल नहीं पाती लेकिन अपनी आवाज को सरकार तक पहुंचाना उनका मकसद है ।