Wednesday, May 22, 2013

थम नहीं रहा यौन हिंसा का सिलसिला

पूरे देश में बलात्कार और बलात्कारियों के खिलाफ आन्दोलन जोर-शोर से चल रहा है. नए-नए क़ानून बनाए जा रहे हैं. इसके बावजूद बलात्कार तथा छेड़छाड़ के मामलों में कमी नहीं हो रही बल्कि दिन-ब-दिन बढती ही जा रही है. बिहार में भी तक़रीबन हर दिन अखबारों में बलात्कार और छेड़छाड़ की ख़बरें आम बात हो गई है. इससे भले ही पूरा देश अनभिज्ञ रहे पर दर्द और तकलीफ तो यहाँ भी उतनी ही है. मासूम गुड़िया की दिल दहला देने वाली घटना के बाद तक़रीबन दर्जन भर मामले यहाँ सामने आ चुके हैं. जो मामले किसी वजह से दब चुके हैं, उसके बारे में बताना संभव नहीं. यह एक ऐसा अपराध है जिसमें हर तरह से सजा पीड़ित को ही मिलती है. कई बार समाज के डर से तो कई बार अपराधियों की धमकियों से पीड़िता को चुपचाप दर्द का घूँट पीकर रहना पड़ता है. यह दर्द कुछ पल, दिन या साल का नहीं होता बल्कि पूरे उम्र नासूर की तरह चुभता रहता है. हाल के दिनों में राज्य में घटित कुछ दुष्कर्मों पर भी अगर नजर डालें तो राज्य में महिलाओं स्थिति का कुछ तो अंदाज जरुर लग सकता है. 18 अप्रैल को राजधानी पटना से करीब 10 किलोमीटर दूर बिहटा में सात साल की मासूम बच्ची को अपराधियों ने हवस का शिकार बनाया. साथ ही पीड़ित परिवार को धमकी देकर मामले को दबाने की कोशिश भी की, हालांकि 4 दिन बाद मामला पुलिस के पास पहुँच गया. वहीँ पश्चिम चंपारण के मझौलिया गाँव में 17 साल की नाबालिग को पहले तो अपराधियों ने अगवा किया फिर उसी की माँ के सामने ही सामूहिक बलात्कार किया. 6 मई की रात राजधानी से कुछ ही दूर बिहिया में आठ साल की मासूम के साथ एक किशोर ने दुष्कर्म किया. दूसरे ही दिन 7 मई को आरा से रघुनाथपुर जा रही सवारी गाडी में एक महिला के साथ दुष्कर्म किया गया. ब्रह्मपुर थाना क्षेत्र के इस अपराधी ने ट्रेन के पिछले डब्बे मंा बैठी महिला को देखा और मौका पाते ही अपनी हवस का शिकार बना लिया. 7 मई को दरभंगा जिले के हरशेर गाँव में सात वर्ष की बच्ची को उसी के गाँव के 19 साल के युवक ने अपनी हवस का शिकार बनाया. इधर मुजफ्फरपुर जिले के मिश्रीटोला गाँव की एक नाबालिग के साथ उसी के प्रेमी ने अपने साथियों के साथ मिल कर दुष्कर्म किया. विरोध करने पर उसे ब्लेड से घायल कर तेजाब से जलाया गया. पीड़िता के बेहोश होने पर उसे मरा हुआ समझ कर अपराधी भाग गए. 6 मई को जब उसे होश आया तो अपनी हालत देखकर बिलख पड़ी. वह हादसे से इस कदर टूट चुकी है कि अब जीना नहीं चाहती. 6 मई को ही खुद को तांत्रिक कहने वाले एक मधुबनी जिले के केसुली गाँव में एक युवती के साथ जबरदस्ती करने की कोशिश की, हालांकि लड़की के शोर मचाने पर गाँववालों ने पीट-पीट कर उसकी हत्या कर दी. ये केवल कुछ उदाहरण हैं, ऐसे कई मामले पुलिस विभाग की फाइलों में लगातार दर्ज हो रहे हैं तो कई डर या शर्म की वजह दब जाते हैं. कई बार तो पुलिस खुद ही मामले को रफा-दफा करने की कोशिश करने लगती है. इसका उदाहरण है रोहतास सूर्यपुरा थाना, जहाँ छेड़खानी की शिकायत करने आई लड़कियों को बहला-फुसला कर वापस कर दिया गया. बार-बार शिकायत करने पर भी जब पुलिस की तरफ से कोई कार्यवाई नहीं की गई तो मनचलों को छेड़खानी की खुली छुट मिल गई. सड़कों पर खुले-आम लड़कियों के साथ छेडखानी बढती गई. अंत में जब मामला मुख्यमंत्री के जनता दरबार में पहुँचा तो अभियुक्तों की गिरफ्तारी हो सकी. अकसर इन मामलों में पुलिस का रवैया असंवेदनशील रहा है, जैसा कि दिल्ली बलात्कार मामले में भी देखा गया है. दोष केवल पुलिस या प्रशासन का नहीं माना जा सकता. पूरे समाज की मानसिकता महिला-विरोधी रही है. आश्चर्य तो तब होता है जब लोग बलात्कार के लिए भी महिलाओं को ही दोषी मानते हैं. उनके पहनावे तथा बाहर घुमने-फिरने को बुरा मानते हैं. एक अधेड़ महिला ने तो यहाँ तक कह दिया कि “लडकियां ही लड़कों को दुष्कर्म के लिए आकर्षित करती हैं, मर्दों की तो जात ही ऐसी है.” ऐसे कई लोग मिल जायेंगे जो लड़कियों को ही नसीहत देने से बाज नहीं आते. पहले 16 दिसंबर को दिल दहला देने वाली घटना और फिर पिछले महीने 5 साल की मासूम गुड़िया के साथ दरिंदगी के मामले ने पूरे देश का दिल दहला दिया. आम जनता सड़कों पर उतर आई. महिलाओं की सुरक्षा, पुलिस तथा प्रशासन का नकारात्मक रवैया तथा शासन व्यवस्था की खामियों पर चर्चा जारी है. देश की राजधानी होने की वजह से दिल्ली की घटना निश्चित तौर पर मीडिया और लोगों को ज्यादा झकझोरती है. लेकिन आँकड़े बताते हैं बिहार में भी यौन उत्पीड़न के मामलों में लगातार बढ़ोतरी हुई है. 2001 से 2013 तक राज्य में 11433 महिलाएँ दुष्कर्म की शिकार हो चुकी हैं. इसका मतलब है कि हर साल औसतन 141 महिलाओं को दरिंदों ने अपनी हवस का शिकार बनाया है. पटना महिला हेल्पलाइन में दर्ज मामलों के अनुसार भी यौन हिंसा के मामलों में हर साल बढ़ोतरी हो रही है. बिहार पुलिस की वेबसाईट के अनुसार जुलाई 2012 तक कॉगनिजेबल(संज्ञेय) अपराधों की संख्या 94188 है. राज्य में 14 से 49 वर्ष की 56 प्रतिशत महिलायें शारीरिक एवं यौन हिंसा की शिकार हैं. केवल सिवान जिले के पुलिस अपराध शाखा से मिले आँकड़ों के अनुसार साल 2012 में जिले में 20 मामले बलात्कार और छेड़खानी के हैं. कई बार तो यह भी देखा गया है एकतरफ़ा प्यार के नाकाम होने या दुष्कर्म के प्रयासों में विफल होने पर तेज़ाब हमले द्वारा लड़की को जिन्दगी भर की सजा दी जाती है. 2011 में अमेरिका के कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत में 1999-2010 के बीच 153 तेजाबी हमले हुए हैं. अकसर इन हमलों में पीड़िता के चेहरे को निशाना बनाया गया. बिहार में भी ऐसे हमले के कई मामले प्रकाश में आ चुके हैं. चंचल और तबस्सुम इसके ताजा उदाहरण हैं. देश के अन्य इलाकों की तरह यहाँ भी मासूम बच्चियों के साथ दुष्कर्म के मामले ज्यादा देखने को मिल रहे हैं. मासूमों के साथ ऐसा घिनौना अपराध मानसिक रूप से विकृत व्यक्ति ही कर सकता है. सवाल यह भी उठता है कि समाज में इतनी मानसिक विकृति क्यों बढ़ रही है ? इस मामले में ए. एन. सिन्हा सामाजिक संस्थान में सामाजिक मनोविज्ञान विभाग के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. एस. एम. ए. युसूफ का कहना है कि “आधुनिक जीवनशैली युवाओं को नैतिक रूप से कमजोर बना रही है. साथ ही शराब और अन्य नशीले पदार्थ उन्हें खुद पर नियंत्रण नही रखने देते. साथ ही संचार के आधुनिक माध्यम उन्हें पथभ्रमित कर रहे हैं.” दूसरी ओर जे. डी. विमेंस कॉलेज में मनोविज्ञान विभाग की एसोसिएट प्रोफ़ेसर अख्तर जहाँ का कहना है संयुक्त परिवार मंि बच्चों का नैतिक विकास ज्यादा अच्छी तरह होता था. परिवार के सदस्यों खासकर बुजुर्गों का डर भी उन्हें अनैतिक कार्यों से दूर रखता था, लेकिन इनदिनों एकाकी परिवार का प्रचलन बढ़ गया है. माता-पिता दोनों बाहर काम करने जाते हैं, इसलिए बच्चों पर अधिक ध्यान नहीं दे पाते. साथ ही युवकों को किसी का डर नही रह गया है इन वजहों से इन घटनाओं में लगातार वृद्धि हो रही है. इसके अलावा टेलीविजन, इंटरनेट आदि युवाओं को भटका रहे हैं.” राज्य तथा केंद्र सरकार महिला सशक्तीकरण के लिए अनेकों योजनाएँ चला रही है. राज्य सरकार ने तो पंचायतों में महिलाओं 50 प्रतिशत आरक्षण भी दिया है. सारी योजनाओं का मकसद नारी को मजबूत और सुरक्षित बनाना है. अब सवाल यह उठता है की क्या नारी सच में सशक्त हो रही है? क्या हमारा पुरुषसत्तात्मक समाज नारी की स्वतंत्र और स्वावलंबी छवि को स्वीकार कर रहा है? हर बार जब हम ऐसी किसी घटना के बारे में देखते या सुनते हैं तो सरकार और प्रशासन के मत्थे सारा दोष मढ देते हैं, लेकिन मन में यह सवाल उठाना भी लाजिमी है कि आखिर कब तक समाज और खासकर युवा वर्ग अपनी जिम्मेवारी समझेगा और देश को सम्मानजनक स्थिति में पहुँचाएगा?

Friday, May 17, 2013

सुशासनी माहौल में भी सुरक्षित नहीं महिलाएं



बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अक्सर यह कहते हुए पाए जाते हैं कि आकर देखिये हमारे पटना में रात के दस बजे भी डाक बंगला चौराहे पर लड़कियां आइस्क्रीम खाते हुए मिल जायेंगी. बिहार में बेहतर लॉ एंड ऑर्डर है. इसका जमकर प्रचार-प्रसार भी किया जा रहा है. इसके चलते धीरे-धीरे बिहार सुशासन का पर्याय बनता गया. देश-दुनिया में उनकी चर्चा हुई. उन्हें कई सम्मान मिले. मसलन, त्रिस्तरीय पंचायत में महिलाओं के आरक्षण को 33 प्रतिशत से बढाकर 50 प्रतिशत करना. पार्टी से अलग लाईन लेते हुए संसद में महिला आरक्षण विधेयक का समर्थन करना. महिला थाने की स्थापना करना. और तो और स्कूली छात्राओं को साईकिल बांटकर तो इन्होंने खूब लोकप्रियता हासिल की.

अव्वल तो ये कि इन फैसलों को जमकर प्रचारित-प्रसारित भी किया गया, और इसका फायदा भी खूब बटोरा गया. लेकिन सुशासन के पर्याय के रूप में बिहार को स्थापित करने की कोशिश में लगे नीतीश के सुशासन का आवरण अब उतरने लगा. खुद बिहार पुलिस की वेबसाईट यह बताती है कि जुलाई 2012 तक कॉगनिजेबल (संज्ञेय) अपराधों की संख्या 94 हज़ार 188 है. महिलाओं की बेहतरी को तत्पर नीतीश के सुशासनी माहौल में जुलाई 2012 तक कुल 562 रेप की घटनायें हो चुकी हैं. ये आंकड़े बिहार पुलिस की वेबसाईट बताती है, जबकि वास्तविक आंकड़े भयावह स्थिति दर्शाने लगी है. वेबसाईट की बात छोड़ भी दें तो गत मार्च को विधानसभा में प्रभारी गृह मंत्री विजय कुमार चौधरी ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि अक्टूबर 2012 तक बलात्कार के 823 मामले दर्ज किये गये हैं. नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े को अगर देखें तो 2008 में महिलाओं के खिलाफ 6186 घटनायें दर्ज की गयी, 2011 में यह घटना बढ कर 10 हज़ार 231 हो गयी. मतलब यह कि मात्र तीन वर्षों में महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा में 65 प्रतिशत की बढोत्तरी हुई है. वहीं बिहार में 14 से 49 वर्ष की 56 प्रतिशत महिलायें शारीरिक एवं सेक्सुअल हिंसा की शिकार हैं. महिलाओं के लिये खासी चिंतित रहने वाली इस सरकार में हाल के दिनों में लगातार हिंसा बढ़ी हैं. औसतन बिहार के किसी भी जिले से बलात्कार या महिला उत्पीड़न की घटना रोज आती है. सरकार सा अधिकारी महिलाओं की सुरक्षा या स्वाभिमान को लेकर बिल्कुल लापरवाह हैं. इसके कई उदाहरण हैं.

बीते सितंबर को ही राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने बिहार की सीवान जिले में तेजाब हमले में बुरी तरह जख्मी हुई एक किशोरी के मामले को गंभीरता से लेते हुए राज्य सरकार से इस पीडिता के उपचार के लिए तत्काल वित्तीय मदद मुहैया कराने का आग्रह किया था. आयोग के मुताबिक, तेजाब हमले की पीडितों की मदद के लिए कई राज्यों ने वित्तीय मदद के प्रावधान किए हैं, लेकिन बिहार में इससे जुडा कोई कानून नहीं है. आयोग को आदेश दिये हुए सात महीने गुजर गये हैं लेकिन वित्तीय मदद की बात तो दूर राज्य सरकार का कोई अधिकारी ने पीड़िता के परिवार से संपर्क करने की कोशिश भी नहीं की. सीवान के हरिहंस गांव में बीते 26 सितंबर को कुछ युवकों ने 14 साल की इस लडकी पर तेजाब फेंक दिया था. इस हमले में यह लडकी बुरी तरह से झुलस गई है. लड़की के पिता आरिफ फिलहाल सफदरजंग में अपनी बेटी का इलाज करा रहे हैं. आरिफ कहते हैं कि साहब क्या-क्या करें, सरकार से मदद मांगने जायें, कोर्ट का चक्कर लगायें या बेटी का इलाज करायें. आरिफ ने कई दफे स्वास्थ्य विभाग से बात भी की, लेकिन अबतक आरिफ को आश्वासन ही दिया जा रहा है. यह अकेला मामला नहीं है. अभी हफ्ते भर पहले पूर्वी चंपारण के कल्याणपुर थाना क्षेत्र में 10वीं की छात्रा के साथ चार लोगों ने गैंगरेप करने के बाद उसके शरीर पर तेजाब डाल दिया और गला दबाकर उसकी हत्या करने की कोशिश की.

राजधानी से महज बीस किलोमीटर दूर मसौढ़ी थाना के क्षेत्र की दो बहनों पर भी बीते अक्टूबर में ही एसिड से हमला किया गया था. फिलहाल इसकी मदद को पूर्व सांसद व रालोसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा सामने आये हैं. यही वजह है कि यह मामला उभर कर सामने आया है नहीं तो अन्य घटनाओं की तरह ही दफन हो जाता. ठीक इसी नवरात्रा में सप्तमी के दिन 19 वर्षीय चंचल को एसिड से जला दिया जाता है. काल की तरह आयी उस रात को चंचल याद करते हुए सहम जाती है. उस रात उसे ऐसा लगा था मानो किसी ने आग की भट्ठी में झोंक दिया हो. चंचल कहती है आप मेरी तस्वीर पूरी दुनिया को दिखाइये ताकि लोग देख सकें कि इस सुशासन में मेरा क्या हाल है. लोग सच्चाई को जान सकें. 21 अक्टूबर की रात, मां-पिता और दोनों बहनें छत पर होती हैं. कल कन्या पूजन है, इस विजयादशमी को कैसे मनायेंगे यही सब बतियाते हुए सारे लोग छत पर ही सो जाते हैं. रात के लगभग बारह बजे चंचल अपनी 16 साल की बहन सोनम के साथ छत पर सो रही होती है तभी उसी के मुहल्ले के चार लड़के आते हैं और सो रही चंचल व सोनम के शरीर से रजाई हटा कर उसपर एसिड डाल देते हैं. सुंदर, चुलबुली व मां-पापा की लाडली चंचल बुरी तरह झुलस जाती है. पहले तो उसे और उसके घरवाले को लगता है कि लड़कों ने गरम तेल डाला है. लेकिन माजरा समझते देर नहीं लगती है. चंचल को ही बचाने के क्रम में उसकी बहन सोनम का दायां हाथ भी बुरी तरह झुलस जाता है. पिता शैलश पासवान व माता सुनैना देवी को कुछ समझ में नहीं आता है कि क्या किया जाय. वे आस-पड़ोस, गली-मुहल्ले सभी से जाकर मदद की गुहार लगा रहे होते हैं लेकिन कोई भी मदद के लिये आगे नहीं आता है. लेकिन किसी तरह मां-पिता चंचल व सोनम दोनों केा लेकर पीएमसीएच पहुंचते हैं जहां उसका इलाज शुरू होता है. सूबे की व्यवस्था की विडंबना देखिये कि घटना के छह महीने बीत जाने के बाद भी अबतक राज्य सरकार को कोई सक्षम पदाधिकारी पीड़ित परिवार से मिलने नहीं पहुंचा है.

घटना के पांच महीने बीत जाने के बाद महिला आयोग को ध्यान आता है और वह खानापूर्ति के लिये 10 अप्रैल को चंचल और उसके परिवार वाले से मिल आती है. इसके बाद से अबतक आयोग की तरफ से कोई भी ठोस पहल नहीं की गई इस दिशा में कि कैसे चंचल को न्याय मिल सके, उसके इलाज की उचित व्यवस्था की जा सके. शैलेश पासवान आज भी डर-डर कर ही जी रहे हैं वे साफ कहते हैं कि घटना को अंजाम देने वाले दबंग परिवार से आते हैं और आज भी मुकदमा उठा लेने को लेकर धमकी दिया जाता है. क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड की कल्पना तक नहीं कर सकने वाले शैलेश पासवान बीपीएल के लाल कार्ड वाले हैं. दैनिक मजदूर हैं. बेटी को न्याय और उचित इलाज मिल सके इस फिराक में वे सभी दरवाजे को खटखटा कर निराश हो चुके होते हैं. इसी बीच स्थानीय पत्रकार व समाजसेवी निखिल आनंद उनके लिए उम्मीद की किरण बन कर आते हैं.

निखिल फेसबुक पर एक पेज हेल्प ऐसिड अटैक विक्टिम के नाम से बनाते हैं. इसी पेज के माध्यम से राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष व पूर्व राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा को इस घटना के बारे में जानकारी मिलती है. इसके बाद कुशवाहा कई दफे पीड़ित परिवार से जाकर मुलाकात करते हैं. फिलहाल कई दिनों से कुशवाहा चंचल, सोनम, उसके मां-पिता व पत्रकार निखिल के साथ रांची रहकर आये हैं. रांची के देवकमल अस्पताल के डायरेक्टर व जानेमाने पलास्टिक सर्जन डॉ. अनंत सिन्हा ने कहा है कि जून से चंचल का इलाज शुरू होगा. डॉ. के अनुसार चंचल को लगभग 11-12 सर्जरी से गुजरना पड़ेगा. अनंत सिन्हा अस्पताल के चार्ज व अपनी फीस नहीं लेंगे. बावजूद इसके सर्जरी में लगभग 15 लाख रूपए खर्च होने की संभावना है. फेसबुक के जरिये मदद की भी अपील की जा रही है. हालांकि इस बीच खुद डॉक्टर अनंत सिन्हा व उपेंद्र कुशवाहा ने कहा है कि पैसे की कमी की वजह से इलाज नहीं रोका जायेगा. घटना को जानते समझते हुए चंचल और सोनम से मिलने का मौका मिलता है. चंचल की जीवटता और हौसला देखकर हर कोई आश्चर्य से भर उठता है. चंचल बहुत आराम से नहीं बोल पाती है. लेकिन फिर भी वह कोशिश करती है कि अपनी पीड़ा, अपना दर्द वो खुद बताये. साथ ही यह भी कहना नहीं भूलती है कि वह कम्पयूटर इंजीनियर बनना चाहती थी.

थोड़ी ठहर कर वह कहती है पहले इलाज करा लूं, अपना मुकाम तो मुझे पाना ही है. अपने चेहरे को दुपट्टे से ढ़की चंचल हमसे बात कर रही होती है. उसे बोलने में भी तकलीफ हो रही है. रह-रह कर वह जलन से कराह उठती है. अपने हाथ में उसकी पुरानी तस्वीर को देख पूरा मस्तिस्क सन्न से रह जाता है, एकदम शून्य. वाकई देख नहीं सकने वाला चेहरा दरिंदों ने बना दिया है. आंखें गल चुकी हैं. होंठ का पता ही नहीं चलता है. चंचल का खूबसूरत और प्यारा सा चेहरा पहले जिसने भी देखा होगा वह अब उसे पहचान नहीं पायेगा. चंचल के इस चेहरे को देख एकबारगी तो यह जरूर ख्याल आता है कि तालिबान और अफगानिस्तान में रेपिस्टों को दी जाने वाली सजा ही सही है. चंचल ढ़ंग से बोल नहीं पाती है. वह भर पेट भोजन भी नहीं कर पाती है. नींद भी उसे कम ही आती है. जलन से वह हमेशा परेशान रहती है. इसके बाद भी चंचल की जीवटता इस सभ्य समाज को रोज तमाचा जड़ता है. चंचल के पिता शैलेश पासवान कहते हैं कि अबतक प्रशासन की ओर से कोई मदद नही की गई है. बड़े अधिकारियों की तो छोड़िये मुखिया-सरपंच को फुरसत नही हुई हमसे सहानुभूति के दो शब्द कहने की. मां सुनैना देवी को अब समाज से ही उम्मीद है. वे कहती हैं कि अगर समाज चाहे तो हमारी दुनिया फिर से बस सकती है. निखिल कहते हैं कि घटना के सात महीने हो चुके हैं लेकिन अबतक 164 का बयान तक नहीं लिया गया है, जबकि पीड़िता डीएम से गुहार लगा चुकी है.

बताते चलें कि इस मामले में आरोपी अनिल, राज, घनश्याम और बादल जेल में हैं. स्थानीय लोग बताते हैं कि इन लड़कों का चरित्र कभी ठीक नहीं रहा है. वहीं जानकारी मिलती है कि इससे पहले भी यह शेरपुर में छेड़खानी की घटना कर चुका है. शैलेश पासवान कहते हैं कि इन चारों के खिलाफ दो साल पहले भी स्थानीय थाने में शिकायत की थी, लेकिन प्रशासन ने कभी गंभीरता से नहीं लिया. उपेंद्र कुशवाहा इस मुददे पर राजनीति से उपर उठकर कहते हैं कि राज्य सरकार को चंचल की मदद के लिये आगे आना चाहिये, और वह ऐसा कानून बनाये कि आगे ऐसी घटना न हो.

(14 मई 2013 को palpalindia.com में प्रकाशित)

आस्था या अंधविश्वास

पिछले कुछ समय से जब भी किसी तीर्थ स्थान या ज्यादा टी.आर.पी.(टूरिस्ट रेटिंग पॉइंट) वाले मंदिरों में गई तो वहाँ से लौटने के बाद मन में एक ही विचार आया कि अगली बार ऐसी किसी जगह नहीं जाना है, लेकिन आदतन कुछ दिनों के बाद सब भूलकर फिर वही गलती कर बैठती हूँ. इस बार मेरे इस लेख का उद्देश्य भी यही है कि अपनी इस भूल को याद रख सकूँ. वैसे मेरे इस विचार का मतलब यह कतई न समझा जाए कि मेरी ईश्वर में आस्था नहीं है या खत्म हो गई है. मेरी आस्था आज भी ईश्वर पर उतनी ही है जितनी कुछ सालों पहले थी जब मैं घंटो अपना समय पूजा-पाठ के कामों में बिता दिया करती थी. फर्क बस इतना आया है अब इन अंधविश्वासों और आडंबरों को तर्क की दृष्टी से देखने की आदत-सी हो गई है. ईश्वर में आस्था अब भी बरकरार है लेकिन धर्म में व्याप्त बुराइयों से मन दुखी हो जाता है. कई लोगों को मेरे इस विचार से समस्या हो सकती है, लेकिन मेरा उद्देश्य केवल उन बुराइयों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करना है जिन्होंने धर्म और धार्मिक जगहों को गंदा कर दिया है. अपने घर में बने छोटे से मंदिर या मुहल्ले के मंदिरों में सर झुकाते वक्त मन में जितनी श्रद्धा उमड़ती है, तीर्थ स्थान या सुप्रसिद्ध मंदिरों में इसका आधा भी महसूस नहीं होता. इन जगहों में जो बातें दिमाग में चलती रहती हैं वे कुछ इस प्रकार हैं- जूते-चप्पल ठीक से रखो कहीं चोरी न हो जाएँ, कहीं ये हमें ठग तो नहीं रहा, पंडितों के चक्कर में मत पड़ो वरना पॉकेट खाली हो जाएगी, उफ़ इतनी गंदगी है जैसे मंदिर नहीं कचराघर हो, किसी तरह जल्दी दर्शन हो जाए लाइन में खड़े-खड़े हालत खराब हो गई और लाख कोशिशों के बावजूद आखिर हम ठगी के शिकार बन ही गए, आदि. मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि ऐसा सोचने वाली मैं अकेली नहीं, ज्यादातर दर्शनार्थियों के दिमाग में यही बातें चल रही होती हैं. अब ऐसे में पूजा-पाठ में कैसे मन लग सकता है. बचपन से लेकर आज तक जब भी कहीं घुमने की योजना बनी तो किसी न किसी प्रसिद्ध मंदिर या तीर्थ-स्थान का चुनाव किया गया. ऐसा होना लाजिमी भी है मंदिरों के इस देश में मध्यवर्ग की मानसिकता के अनुकूल जो है, एक पंथ दो काज जो हो जाते हैं. लड़कपन में भले ही समझदारी न हो लेकिन माता-पिता को परेशान देखकर एहसास तो हो ही जाता था कि भगवान् के दर्शन करना इतना आसान नहीं है, खासकर जब पास में पैसे कम हों. झारखंड का देवघर शिवभक्तों के लिए बहुत ही पावन भूमि मानी जाते है, लेकिन यहाँ के पंडा (पंडित) के जाल से बचना लगभग नामुमकिन है. खासकर तब जब आपको कोई कर्मकांड भी कराना हो. काशी में भी तक़रीबन यही स्थिति है. मंदिर में प्रवेश करते ही हर दुकानदार इस तरह अपने दुकानों में अपने जूते-चप्पल रखने की विनती करते हैं जैसे आपके जुते रखते ही उनका दुकान पवित्र हो जाएगा. इसके बाद आपको पूजा हेतु आवश्यक सामाग्री देकर (उनके हिसाब से) पूजा करने भेज दिया जाएगा. वापस आने पर पता चलता है की उस सामान का आपसे दुगुना-तिगुना दाम वसूला जा रहा है. आप चाह कर भी न कुछ कह पाएंगे और न ही कुछ कर पाएंगे क्योंकि आपको पापी और नास्तिक साबित करने में एक मिनट की भी देरी नहीं की जाएगी. आपके साथ ऐसा बर्ताव किया जाएगा जैसे आप उस दुकान में जबरन घुस आए हों. ऐसा तक़रीबन हर बड़े मंदिरों में आपको आसानी से देखने को मिल जाएगा. इन मंदिरों में आपको भगवान की मुख्य मूर्तियों के अलावा छोटी-बड़ी सैकड़ों मूर्तियाँ नजर आएँगी और उसके बगल में एक पंडित नजर आएगा जो आपको वहाँ पैसे चढ़ाने की नसीहत देगा. अगर आपने उसकी बात अनसुनी की तो आपको भला-बुरा सुनाया जाएगा और उसी ईश्वर के कहर का भी खौफ दिलाया जाएगा. महाराष्ट्र का त्रयंबकेश्वर हो या अन्य कोई ज्योतिर्लिंग सबकी तक़रीबन यही स्थिति है. कोलकाता के प्रसिद्ध कालीबाड़ी में तो पंडित लाइन लगाकर ग्राहकों (भक्तों) का इंतजार करते हैं ताकि वे उनको अपने जाल में फंसा सकें. वीआईपी दर्शन का लालच भी दिया जाता है. मंदिर परिसर के पास ही पुलिस थाना है और सिपाही मंदिर में चौकसी करते नजर आते हैं इसके बावजूद यह सब खुले आम हो रहा है. जब थाना प्रभारी से इस बारे में बात की गई तो उन्होंने कहा कि वे इससे निबटने में सक्षम हैं लेकिन उनके हाथ बंधे हुए हैं. कोई भी सरकार धार्मिक विवादों से परहेज ही करती है. इसके बावजूद पुलिस समय-समय पर इन पर शिकंजा कसती रहती है, लेकिन जागरूकता के अभाव और अंधविश्वास के कारण इनका कारोबार फल-फूल रहा है. इनदिनों शिर्डी के साईं बाबा की लोकप्रियता काफी बढ़ रही है. जाहिर सी बात है यहाँ के लोगों का धंधा भी जोर-शोर से चल रहा है. यहाँ पंडितों का खतरा तो नहीं लेकिन शिर्डी जाना बहुत महँगा पड़ सकता है. होटल का रेट दिन और भीड़ के हिसाब से तय किया गया जाता है. बुधवार और गुरुवार रेट सबसे अधिक होता है. शनिवार और रविवार को छुट्टी का दिन होने की वजह से ज्यादा दर्शनार्थी जुटते हैं सो उस दिन कमरे के लिए मोटी रकम चुकानी पडती है. 1-2 घंटे के लिए कमरा लेना भी काफी महँगा है. गया का विश्वप्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर हो या बौद्धों की सबसे पावन-भूमि बोध गया, पैसे वसूलने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं. बोध गया में तो खासकर विदेशियों को निशाना बनाया जाता है. पूरे मंदिर-परिसर में उनसे छोटी-से-छोटी चीज के लिए मनमानी रकम वसूली जाती है. भले ही भारत मंदिरों का देश हो लेकिन यहाँ के मंदिरों की दशा काफी बुरी है. एक तो ठग हर मोड़ पर आपका इंतजार करते रहते हैं वहीँ दूसरी ओर गंदगी आपको नाक-भौं सिकोड़ने पर मजबूर कर देती है. अंधश्रद्धा के आगे सरकार ने भी घुटने टेक दिए हैं क्योंकि वह भी अपना वोट-बैंक ख़राब नहीं कर सकती. ऐसे में अगर मेरा मन इन तथाकथित पवित्र जगहों पर जाने का नहीं करता तो क्या मैं नास्तिक हूँ? (18 मार्च 2013 को जनसत्ता "दुनिया मेरे आगे" में प्रकाशित)