Monday, November 7, 2011

11 साल हो गए, अब तो जागो



मणिपुर में सैन्य बलों को मिले विषेशाधिकारों का विरोध कर रही इरोम शर्मिला को अनशन पर बैठे 11 साल पूरे हो गए । 4 नवंबर 2000 को इरोम चानू शर्मिला ने सैन्य बलों द्वारा जनता पर किये जा रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन आज तक उनकी मांग को मानना तो दूर बातचीत करना भी जायज नहीं समझा गया। आश्चर्य की बात है कि मीडिया ने भी इस मामले में चुप्पी साध ली है ।
वर्धा के युवा सड़कों पर

    जनता, सरकार और मीडिया की इसी चुप्पी को तोड़ने के लिए गत 5 नवंबर(शनिवार) को महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर वर्धा के युवा सड़क पर उतरे । विश्व इतिहास में अब तक की सबसे लंबी चलने वाली भूख हड़ताल के समर्थन में युवाओं ने रैली निकाली और धरना दिया । इरोम तुम्हारे सपनों को मंजिल तक पहुचायेंगे, राजकीय कानूनी हिंसा बंद करो जैसे कई नारे वर्धा की सड़कों पर गूंज रहे थे । वैसे तो यह रैली महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रिय हिंदी विश्वविद्यालय से निकली लेकिन वर्धा के लोगों खासकर युवाओं ने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया । 10 बजे सुबह निकला यह जुलुस शहर का चक्कर लगाते हुए जिलाधिकारी कार्यालय के सामने धरने पर बैठा । धरना के दौरान शर्मिला के लिए नारेबाजी के साथ-साथ नुक्कड़ नाटक का भी प्रदर्शन किया गया । युवाओं ने सांकेतिक रूप से एक दिन का अनशन भी किया। इसका उद्देश्य सरकार की नींद तोड़ने के साथ-साथ जनता को भी जागरूक करना था ।
मीडिया और हिंदी पट्टी की नज़र में
 
मणिपुर का जिक्र आते ही अधिकांश लोग कन्नी काटना शुरु कर देते हैं । कई दफा यहां तक सुनने को मिलता है कि अच्छा तो मणिपुर अपने ही देश में है । अगर दिल्ली का ही लें तो हमारे पुर्वोत्तर के साथियों को कमरा ढूंढने से लेकर अपनी स्वच्छ छवि तक के लिये काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है । देशभक्ती का तगमा लगाये अघिकांश लोगों के लिये सिर्फ चिंकीज होते है । एक सवाल जो लाजमी है कि क्या इसी तरह का कोई अनशन बिहार, झारखंड, यूपी जैसे किसी राज्य से हो रहा होता तो उसका भी यही हश्र होता ? क्या मीडिया तब उसे दरकिनार कर पाती ? वैसे भी जिस राज्य से मात्र दो सांसद हो और जिस कार्यक्रम से कोई खास टीआरपी नहीं मिलने जा रही हो उसके लिये कोई क्यों मगजमारी करे ! 
उद्देश्य से भटका आफ्सपा
 
1958 में नागा विद्रोह को नियंत्रित करने के लिए पहली बार आम्र्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट(आफ्सपा) कानून अमल में लाया गया । शुरूआती दौर में इसका उपयोग केवल नागा को नियंत्रित करने के लिए किया गया और इसे जल्द हटाने की बात भी कही गयी लेकिन ऐसा नहीं हुआ । इसके विपरीत यह कानून पूर्वोत्तर के सात राज्यों से होता हुआ काश्मीर तक पहुंच गया । इस कानून के अनुसार सैन्य बलों को यह अधिकार है कि वे शक के आधार पर किसी को भी गोली मार सकते हैं और उनपर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती । पिछले 53 वर्षों में हजारों बार यह साबित हो चुका है कि अफ्सपा लोकतंत्र पर काला धब्बा है । इस बात को सरकार भी दबी जुबान में स्वीकार करती आई है । 2004 में भारत सरकार द्वारा गठित रेड्डी की अध्यक्षता वाले कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि चाहे जो भी कारण रहे हों, ये कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी के साधन का एक प्रतीक बन गया है। हजारों निर्दोशों को गोलियों से भून दिया गया । महिलाओं के साथ दुराचार, बलात्कार, बच्चों का कत्ल जैसे कृत्यों को सरेआम अंजाम दिया जा रहा है । हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएं इतनी आम हो गयी हैं कि वहां जब कोई घर से निकलता है तो घरवाले इस बात से भयभीत रहते हैं कि पता नहीं वे वापस लौटेंगे या नहीं । इरोम चानू शर्मिला ने जनता को चैन और सुकून की जिंदगी दिलवाने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की । 
और अंत में
 
      सैन्य बलों ने इरोम को जबरदस्ती कृत्रिम साधनों के जरिए जिंदा तो रखा है लेकिन उनका शरीर बिल्कुल बेजान हो चुका है । इसके बावजूद शर्मिला के इरादे कमजोर नहीं पड़े हैं । वह ठीक से बोल नहीं पाती लेकिन अपनी आवाज को सरकार तक पहुंचाना उनका मकसद है ।  

11 साल हो गए, अब तो जागो



मणिपुर में सैन्य बलों को मिले विषेशाधिकारों का विरोध कर रही इरोम शर्मिला को अनशन पर बैठे 11 साल पूरे हो गए । 4 नवंबर 2000 को इरोम चानू शर्मिला ने सैन्य बलों द्वारा जनता पर किये जा रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन आज तक उनकी मांग को मानना तो दूर बातचीत करना भी जायज नहीं समझा गया। आश्चर्य की बात है कि मीडिया ने भी इस मामले में चुप्पी साध ली है ।
      जनता, सरकार और मीडिया की इसी चुप्पी को तोड़ने के लिए गत 5 नवंबर(शनिवार) को महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर वर्धा के युवा सड़क पर उतरे । विश्व इतिहास में अब तक की सबसे लंबी चलने वाली भूख हड़ताल के समर्थन में युवाओं ने रैली निकाली और धरना दिया । इरोम तुम्हारे सपनों को मंजिल तक पहुचायेंगे, राजकीय कानूनी हिंसा बंद करो जैसे कई नारे वर्धा की सड़कों पर गूंज रहे थे । वैसे तो यह रैली महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रिय हिंदी विश्वविद्यालय से निकली लेकिन वर्धा के लोगों खासकर युवाओं ने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया । 10 बजे सुबह निकला यह जुलुस शहर का चक्कर लगाते हुए जिलाधिकारी कार्यालय के सामने धरने पर बैठा । धरना के दौरान शर्मिला के लिए नारेबाजी के साथ-साथ नुक्कड़ नाटक का भी प्रदर्शन किया गया । युवाओं ने सांकेतिक रूप से एक दिन का अनशन भी किया। इसका उद्देश्य सरकार की नींद तोड़ने के साथ-साथ जनता को भी जागरूक करना था ।
मणिपुर का जिक्र आते ही अधिकांश लोग कन्नी काटना शुरु कर देते हैं । कई दफा यहां तक सुनने को मिलता है कि अच्छा तो मणिपुर अपने ही देश में है । अगर दिल्ली का ही लें तो हमारे पुर्वोत्तर के साथियों को कमरा ढूंढने से लेकर अपनी स्वच्छ छवि तक के लिये काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है । देशभक्ती का तगमा लगाये अघिकांश लोगों के लिये सिर्फ चिंकीज होते है । एक सवाल जो लाजमी है कि क्या इसी तरह का कोई अनशन बिहार, झारखंड, यूपी जैसे किसी राज्य से हो रहा होता तो उसका भी यही हश्र होता ? क्या मीडिया तब उसे दरकिनार कर पाती ? वैसे भी जिस राज्य से मात्र दो सांसद हो और जिस कार्यक्रम से कोई खास टीआरपी नहीं मिलने जा रही हो उसके लिये कोई क्यों मगजमारी करे !
1958 में नागा विद्रोह को नियंत्रित करने के लिए पहली बार आम्र्ड फोर्सेस स्पेषल पावर एक्ट(आफ्सपा) कानून अमल में लाया गया । शुरूआती दौर में इसका उपयोग केवल नागा को नियंत्रित करने के लिए किया गया और इसे जल्द हटाने की बात भी कही गयी लेकिन ऐसा नहीं हुआ । इसके विपरीत यह कानून पूर्वोत्तर के सात राज्यों से होता हुआ काश्मीर तक पहुंच गया । इस कानून के अनुसार सैन्य बलों को यह अधिकार है कि वे शक के आधार पर किसी को भी गोली मार सकते हैं और उनपर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती । पिछले 53 वर्षों में हजारों बार यह साबित हो चुका है कि अफ्सपा लोकतंत्र पर काला धब्बा है । इस बात को सरकार भी दबी जुबान में स्वीकार करती आई है । 2004 में भारत सरकार द्वारा गठित रेड्डी की अध्यक्षता वाले कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि चाहे जो भी कारण रहे हों, ये कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी के साधन का एक प्रतीक बन गया है। हजारों निर्दोशों को गोलियों से भून दिया गया । महिलाओं के साथ दुराचार, बलात्कार, बच्चों का कत्ल जैसे कृत्यों को सरेआम अंजाम दिया जा रहा है । हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएं इतनी आम हो गयी हैं कि वहां जब कोई घर से निकलता है तो घरवाले इस बात से भयभीत रहते हैं कि पता नहीं वे वापस लौटेंगे या नहीं । इरोम चानू शर्मिला ने जनता को चैन और सुकून की जिंदगी दिलवाने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की।
      सैन्य बलों ने इरोम को जबरदस्ती कृत्रिम साधनों के जरिए जिंदा तो रखा है लेकिन उनका शरीर बिल्कुल बेजान हो चुका है । इसके बावजूद शर्मिला के इरादे कमजोर नहीं पड़े हैं । वह ठीक से बोल नहीं पाती लेकिन अपनी आवाज को सरकार तक पहुंचाना उनका मकसद है ।  

11 साल हो गए, अब तो जागो



मणिपुर में सैन्य बलों को मिले विषेशाधिकारों का विरोध कर रही इरोम शर्मिला को अनशन पर बैठे 11 साल पूरे हो गए । 4 नवंबर 2000 को इरोम चानू शर्मिला ने सैन्य बलों द्वारा जनता पर किये जा रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाई लेकिन आज तक उनकी मांग को मानना तो दूर बातचीत करना भी जायज नहीं समझा गया। आश्चर्य की बात है कि मीडिया ने भी इस मामले में चुप्पी साध ली है ।
      जनता, सरकार और मीडिया की इसी चुप्पी को तोड़ने के लिए गत 5 नवंबर(शनिवार) को महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर वर्धा के युवा सड़क पर उतरे । विश्व इतिहास में अब तक की सबसे लंबी चलने वाली भूख हड़ताल के समर्थन में युवाओं ने रैली निकाली और धरना दिया । इरोम तुम्हारे सपनों को मंजिल तक पहुचायेंगे, राजकीय कानूनी हिंसा बंद करो जैसे कई नारे वर्धा की सड़कों पर गूंज रहे थे । वैसे तो यह रैली महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रिय हिंदी विश्वविद्यालय से निकली लेकिन वर्धा के लोगों खासकर युवाओं ने इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया । 10 बजे सुबह निकला यह जुलुस शहर का चक्कर लगाते हुए जिलाधिकारी कार्यालय के सामने धरने पर बैठा । धरना के दौरान शर्मिला के लिए नारेबाजी के साथ-साथ नुक्कड़ नाटक का भी प्रदर्शन किया गया । युवाओं ने सांकेतिक रूप से एक दिन का अनशन भी किया। इसका उद्देश्य सरकार की नींद तोड़ने के साथ-साथ जनता को भी जागरूक करना था ।
मणिपुर का जिक्र आते ही अधिकांश लोग कन्नी काटना शुरु कर देते हैं । कई दफा यहां तक सुनने को मिलता है कि अच्छा तो मणिपुर अपने ही देश में है । अगर दिल्ली का ही लें तो हमारे पुर्वोत्तर के साथियों को कमरा ढूंढने से लेकर अपनी स्वच्छ छवि तक के लिये काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है । देशभक्ती का तगमा लगाये अघिकांश लोगों के लिये सिर्फ चिंकीज होते है । एक सवाल जो लाजमी है कि क्या इसी तरह का कोई अनशन बिहार, झारखंड, यूपी जैसे किसी राज्य से हो रहा होता तो उसका भी यही हश्र होता ? क्या मीडिया तब उसे दरकिनार कर पाती ? वैसे भी जिस राज्य से मात्र दो सांसद हो और जिस कार्यक्रम से कोई खास टीआरपी नहीं मिलने जा रही हो उसके लिये कोई क्यों मगजमारी करे !
1958 में नागा विद्रोह को नियंत्रित करने के लिए पहली बार आम्र्ड फोर्सेस स्पेषल पावर एक्ट(आफ्सपा) कानून अमल में लाया गया । शुरूआती दौर में इसका उपयोग केवल नागा को नियंत्रित करने के लिए किया गया और इसे जल्द हटाने की बात भी कही गयी लेकिन ऐसा नहीं हुआ । इसके विपरीत यह कानून पूर्वोत्तर के सात राज्यों से होता हुआ काश्मीर तक पहुंच गया । इस कानून के अनुसार सैन्य बलों को यह अधिकार है कि वे शक के आधार पर किसी को भी गोली मार सकते हैं और उनपर कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती । पिछले 53 वर्षों में हजारों बार यह साबित हो चुका है कि अफ्सपा लोकतंत्र पर काला धब्बा है । इस बात को सरकार भी दबी जुबान में स्वीकार करती आई है । 2004 में भारत सरकार द्वारा गठित रेड्डी की अध्यक्षता वाले कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि चाहे जो भी कारण रहे हों, ये कानून उत्पीड़न, नफरत, भेदभाव और मनमानी के साधन का एक प्रतीक बन गया है। हजारों निर्दोशों को गोलियों से भून दिया गया । महिलाओं के साथ दुराचार, बलात्कार, बच्चों का कत्ल जैसे कृत्यों को सरेआम अंजाम दिया जा रहा है । हत्या और बलात्कार जैसी घटनाएं इतनी आम हो गयी हैं कि वहां जब कोई घर से निकलता है तो घरवाले इस बात से भयभीत रहते हैं कि पता नहीं वे वापस लौटेंगे या नहीं । इरोम चानू शर्मिला ने जनता को चैन और सुकून की जिंदगी दिलवाने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की।
      सैन्य बलों ने इरोम को जबरदस्ती कृत्रिम साधनों के जरिए जिंदा तो रखा है लेकिन उनका शरीर बिल्कुल बेजान हो चुका है । इसके बावजूद शर्मिला के इरादे कमजोर नहीं पड़े हैं । वह ठीक से बोल नहीं पाती लेकिन अपनी आवाज को सरकार तक पहुंचाना उनका मकसद है ।  

Friday, October 21, 2011

अन्ना आंदोलन और मीडिया कवरेज


हम लोकतांत्रिक व्यवस्था में जीते हैं. इसे बनाने, बचाने और संवारने की जिम्मेवारी हमारी आपकी और संसदीय संस्थाओं की है. लोकतंत्र दो स्तरों पर काम करता है- एक हमारे स्वविवेक पर और दूसरा लोकतांत्रिक संस्थाओं के माध्यम से.
हम जैसे-जैसे समानता, आजादी, बंधुत्व को जानने समझने लगते हैं, इसके हनन के बारे मे भी हमारी समझ विकसित होने लगती है. इसके बाद हम निकल पड़ते हैं इसे बनाने और बचाने के लिये, परिणाम जाने वगैर.
अन्ना का आंदोलन भी एसे समय में हुआ जब समाज का आम आदमी भी खुद को असुरक्षित और परेशान महसूस करने लगा था. तंत्र की लगातार विफलताओं के खिलाफ लोग एकजुट होने लगे. इसे विड्म्बना ही कहेंगे कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में पूरे आंदोलन के दौरान लोक और तंत्र एक दूसरे के विपरीत दिखे.
२जी घोटाला, आदर्श सोसाईटी घोटाला, कॉमन्वेल्थ घोटाला, रेड्डी बंधुओं के अवैध खनन का मामला, मंहगाई, भ्रष्टाचार कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिसने आम जनता को सड़कों पर आने को विवश कर दिया. अन्ना के आंदोलन ने आम जनता के उबाल को सिर्फ एक प्लेटफॉर्म दिया.
२जी स्पेक्ट्रम घोटाले में मीडिया के कुछ नामचीन पत्रकारों के नाम सामने आये. इससे खुद मीडिया कलंकित भी हुई. अन्ना आंदोलन नें मीडिया के इस दाग के लिये गंगाजल का काम किया.
अन्ना आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन की तरह व्यापक कवरेज भी मिला. याद कीजिये वह क्षण जब चौटाला और उमा भारती को ग्राउंड जीरो से हूट किया गया था और मीडिया ने उसी तरलता से उस घटना क्रम को लपका भी. सारे चैनल के कैमरे उस ओर हो गये थे. लेकिन इस बात पर भी चर्चा होना आवश्यक है कि जिस समय इंडिया गेट पर मीडिया के एक नामचीन हस्ती को हूट किया जा रहा था किसी चैनल के कैमरे ने खुद को उधर फोकस नहीं किया. अन्ना का यह आंदोलन इस चौथे खम्भे को भी अपने गिरेबान में झांकने को विवश करता है.
इस पूरे आंदोलन में जिस तरह संसदीय लोकतंत्र के नुमाईंदों की तालाश होती रही कहीं ऐसा न हो कि आगे चल कर मुख्यधारा की मीडिया के विकल्प की तालाश को भी मजबूती मिले.
वैसे कथादेश के मीडिया वार्षिकी में संपादक द्व्य अविनाश दास और दिलीप मंडल कहते हैं 21वीं सदी के मौजुदा दौर में परंपरागत मीडिया जब उम्मीद की कोई रौशनी नहीं दिखा रहा तब वैकल्पिक मीडिया के कुछ रूप सामने आये हैं. इसमें इंटरनेट पे खास तौर पे नज़र रखने की जरूरत है.
अन्ना के आंदोलन को आज वैकल्पिक मीडिया का भी भरपूर सहयोग मिला. अन्ना की टीम और आम जनता नें भी जमकर इसका इस्तेमाल किया.
ऐसा नहीं है कि अन्ना के विरोध में स्वर नहीं फूटे. लोगों ने अन्ना के विचारधारा और उनकी ईमानदारी पर भी संदेह किया. यह सच है कि अन्ना गांधी और जे.पी नहीं हैं. गांधी के पास एक व्यापक दृष्टिकोण था, गांधीवाद आज शोध का विषय होता है. जे.पी के पास सारे विपक्षियों का व्यापक समर्थन था सिर्फ कम्यूनिस्टों को छोड़कर. लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद एक बात तो है कि अन्ना का आंदोलन गैरराजनैतिक है. और सबसे बड़ी बात कि इतने बडे जन सैलाब के समर्थन के बावजूद भी आंदोलन का अहिंसक रह जाना मायने रख्ता है. एक महत्वपूर्ण मुद्दा जो अन्ना और उसकी टीम के लिये है कि इतनी बड़ी उर्जा का इस्तेमाल सिर्फ जनलोकपाल तक ही सिमट कर न रह जाय.
74 के जे.पी आंदोलन में एक नारा सड़कों पर गूंजा करता था सिंहासन खाली करो कि जनता आती है..  अन्ना के इस आंदोलन में खून में उबाल लाने वाला ऐसा कोई नारा तो नहीं गूंजा, लेकिन समर्थकों के सिर पर "मैं भी अन्ना वाली टोपी जरूर देखने को मिली.
अन्ना गांधी नहीं हैं, लेकिन गांधीवादी लीक को पकडकर इतने दिन तक चलने वाला व्यक्ति कुछ न कुछ गांधी तो हो ही जायेगा. यह अन्ना की स्वच्छ, बेदाग और ईमानदार छवि ही है जिसके पीछे भारतीय लोकतंत्र के हर तबके की जनता खड़ी है.
हमारे लोकतंत्र में व्यक्तिविशेष सर्वोपरि न होकर संविधान सर्वोपरि है. वजह यह है कि कहीं हमारा लोकतंत्र खतरे में न पड़ जाय. अन्ना या सिविल सोसाईटी के सदस्यों के द्वारा भी आंदोलन के अब तक के पड़ाव में कभी भी यह नहीं दिखाया गया कि वो खुद या अन्ना को संविधान से सर्वोपरि मानते हैं. माननीय सुप्रीम कोर्ट कई न्यायिक फैसलों के दौरान यह कह चुकी है कि सं विधान में संसोधन किया जा सकता है हां इस बात की वाध्यता है कि उसके मूल विचार में कोई परिवर्तन न हो. अन्ना भी लोकतंत्र की हिफाजत के लिये कानून बनाने की मांग कर रहे हैं.
सरकार, अल्पसंख्यक, बुद्धिजीवियों से लेकर वाम धर्मनिरपेक्ष दलित और मीडिया आलोचकों के द्वरा इस व्यापक कवरेज को असंतुलित और पक्षपातपूर्ण बताया जाता रहा है. यहां तक कहा जाता है कि अगर आंदोलन को 24x7 कवरेज नहीं मिला होता तो यह इतना व्यापक और लंबा नहीं खिंचता. लेकिन आनंद प्रधान कहते हैं माफ़ कीजिये मीडिया या न्यूज चैनल कोई आंदोलन कोई खड़ा नहीं कर सकते. किसी अंदोलन के पीछे कई राजनैतिक, सामाजिक कारक और परिस्थितियां होती है. मीडिया किसी आंदोलन का समर्थन  और कवरेज कर सिर्फ एक प्रतिध्वनी पैदा कर सकता है.  वैसे ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि मीडिया ने राहुल गांधी के भट्टा परसौल यात्रा को भी मीडिया ने व्यापक कवरेज दिया था. लेकिन यह भी सच है कि कि पहली बार किसी जनाअंदोलन के द्वारा मीडिया का सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया गया.
सुंदरलाल बहुगुना, मेधा पाटेकर, निगमानंद से लेकर शर्मिला तक कितने लोगों ने आंदोलन किया और कर रहे हैं. लेकिन किसी को इतना व्यापक कवरेज नहीं मिला. इसके एक वजह यह भी है कि टीम अन्ना को प्रोफेशनल और अनुभवी लोगों का भरपूर सहयोग मिला. मनीष सिंसोदिया, अवस्थी मुरलीधरन और विभव कुमार ऐसे ही कुछ नाम हैं. सब कुछ पहले से तय कर लिया जाता था. प्रेस रिलीज कैसा होगा, किस बात पर कितनी और कब प्रतिकिर्या देनी है, कब लाईव होना है सब का एक तय खांका होता था. जनमत सग्रह का सुझाव मशहूर राजनैतिक विशलेषक राजेंन्द्र यादव का था तो सांसदों के घरों के घेराव करने का अइडिया अमिर खान ने टीम अन्ना को दिया. कुल मिलाकर लोकतंत्र के हिफाजत में मीडिया का सफलता पूर्वक इस्तेमाल हुआ या यूं कहें कि मीडिया ने भरपूर साथ दिया.
अन्ना आंदोलन से इतनी बात तो निकल कर सामने आई कि प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त पर सोचने की जरूरत है. अन्ना का यह आग्रह न सिर्फ उन ताकतों से है जो तंत्र की बागडोर संभाले हुए हैं बल्कि उनसे भी है जो लोकतंत्र को विस्तार और गहराई देने में लगे हुए हैं.
संदर्भ :- तहलका, कथादेश, बलॉगवाणी    

Tuesday, August 23, 2011

आपका सरनेम क्या है….?


मेरा जन्म और पालन-पोषण बिहार में हुआ. घर का माहौल अच्छा रहा और लड़की होने के बावजूद काफ़ी स्वतन्त्रता मिली. बचपन में सोचने की शक्ती तो बहुत अधिक नहीं थी, लेकिन शुरू से चलन से हटकर काम करना अच्छा लगता था. शायद यही वजह थी कि आठ्वीं क्लास में स्कूल बदलते समय मैंने अपना नाम केवल ^सुनीता^ रखा. घरवालों को भी कोई आपत्ती नहीं थी. लेकिन जैसे-जैसे बडी हुई मुझे इस बात का एहसास हुआ कि नाम में सरनेम होना बहुत जरुरी है. फॉम भरने से लेकर कई इन्टरव्यू तक में मुझसे यही सवाल पूछा जाता रहा. बार-बार मुझे अपनी सफ़ाई में तर्क देना बड़ा अटपटा सा लगा. यह सिलसिला आज भी जारी है. मैं अकेली नहीं जिसे इस प्रश्न से जूझना पड रहा है. इस कतार में कई लोग हैं जिन्हें मैं जानती हूं. काफ़ी लोग तो सरनेम केवल इसलिये जानना चाहते हैं कि वो सामने वाले कि जाति के बारे में जान सकें. हम जैसे लोगों को ताने भी सुनने पडते हैं क्योंकि हम अपने धर्म और जाति का अपमान करते हैं.
बिहार में रहते हुए मुझे इतनी अधिक समस्या नहीं हुई कि मैं इस बारे में कुछ लिखने को मजबूर हो जाऊं. हां जब से महाराष्ट्र आई, तकरीबन हर दिन मुझे इस सवाल से जुझना पड रहा है. ट्रेन से लेकर विश्विद्दालय और होस्टल में नामांकन कराने तक हर जगह मुझे इसी सवाल का सामना करना पडा. बात केवल सवाल तक रहती तो शायद इतनी बुरी न लगती लेकिन मुझसे इसके लिये जिरह की जाती है. लोग यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि बिना सरनेम का भी किसी का नाम हो सकता है.
ट्रेन से वर्धा आने के क्रम में मेरी दोस्ती एक सभ्रांत परिवार से हुई. फ़ोन नम्बर का आदान-प्रदान भी हुआ. जब मैंने उनसे उनका नाम पुछा तो उन्होंने नाम बताने की जगह कहा कि हमलोग जायसवाल हैं, आप इसी नाम से नम्बर सेव कर लो और मैने कर भी लिया. अब सरनेम बताने की बारी मेरी थी, लेकिन मैंने उन्हें अपना नाम बताया. वो लोग मेरा सरनेम जानना चाह रहे थे. इस बात पे काफ़ी देर तक बहस भी हुई. धीरे-धीरे यह सवाल मेरे सामने रोज आने लगा. कभी-कभी तो यह महसूस होता है कि अपने नाम में सरनेम न लगाकर मैने बहुत बडी गलती कर दी.
चूंकि मैं पत्रकारिता से जुडी रही हूं, इंटरव्यू का दौर चलता रहता है. कई बार लोगों ने मुझे यह भी सुझाव दिया है कि आप साक्षात्कार के दौरान अपने किसी रिश्तेदार का नाम ले लेना जिससे आपकी जाति का पता उन्हें लग सके. इसकी वजह ये थी कि इस टीम मे जो लोग रहते थे वे मेरी जाति से ताल्लुक रखते थे.
एक और वाक्या बताना चाहूंगी. पिछ्ले दिनों दिल्ली में एक न्यूज चैनल में मेरा इंटरव्यू हुआ. जो टीम मेरा इंटरव्यू ले रही थी उसने भी मेरे नाम में सरनेम न होने की वजह पूछी. मेरे तर्क से वे प्रभावित तो हुए लेकिन तब तक उन्हें चैन न आया जब तक मेरी जाति के बारे में पता न चला.
एक सवाल दिमाग में कौंधने लगा कि क्या हमारी पह्चान केवल हमारी जाति या धर्म से है? क्या अपने परिवार, जाति, धर्म, कुल से अलग हमारी पहचान नहीं हो सकती?
मेरा मानना है कि व्यक्ति की खुद की पह्चान जरुरी है. हो सकता है कई लोग मेरी बातों से इत्तफ़ाक न रखते हों लेकिन इतना तो तय है कि किसी कि जाति का पता लगाए बगैर यदि उससे दोस्ती की जाये तो वो दोस्ती बहुत प्यारी होती है. अक्सर देखा गया है कि हर जाति के संबंध में लोग किसी न किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित रहते हैं. जाति के बारे में जानने के बाद सामने वाले के प्रति एक खास तरह की मनोवृत्ति बना ली जाती है जो उसके साथ सरासर नाइंसाफ़ी है.
मैं यह नहीं कहती कि जो लोग अपने नाम के आगे सरनेम लगाते हैं उनकी कोई अलग पहचान नहीं होती. लेकिन हर नाम का एक खास अर्थ होता है. यदि आप गौर करें तो पायेंगे किसी भी व्यक्ति के नाम का गुण उसके स्वभाव में जरुर आता है. एक जैसे नामों वाले भी कई लोग होते हैं, ऐसे में थोडी समस्या हो सकती है. ऐसे में सरनेम या नीकनेम का सहारा लिया जा सकता है. लेकिन अपने सरनेम को बचाने के लिये नाम का सहारा लेना मुझे उचित नहीं जान पडता. अपने पूर्वजों को अपनी कामयाबी का जरिया बनाना खुद को कमजोर समझना है.

Monday, August 22, 2011

आपका सरनेम क्या है...


मेरा जन्म और पालन-पोषण बिहार में हुआ. घर का माहौल अच्छा रहा और लडकी होने के बावजूद काफ़ी स्वतन्त्रता मिली. बचपन में सोचने की शक्ती तो बहुत अधिक नहीं थी, लेकिन शुरू से चलन से हटकर काम करना अच्छा लगता था. शायद यही वजह थी कि आठ्वीं क्लास में स्कूल बदलते समय मैंने अपना नाम केवल ^सुनीता^ रखा. घरवालों को भी कोई आपत्ती नहीं थी. जैसे-जैसे बडी हुई मुझे इस बात का एहसास हुआ कि नाम में सरनेम होना बहुत जरुरी है. फ़ोर्म भरने से लेकर कई इन्टरव्यू तक में मुझसे यही सवाल पूछा जाता रहा. बार-बार मुझे अपनी सफ़ाई में तर्क देना बडा अटपटा सा लगा. यह सिलसिला आज भी जारी है. मैं अकेली नहीं जिसे इस प्रश्न से जूझना पड रहा है. इस कतार में कई लोग हैं जिन्हें मैं जानती हूं. काफ़ी लोग तो सरनेम केवल इसलिये जानना चाहते हैं कि वो सामने वाले कि जाति के बारे में जान सकें. हम जैसे लोगों को ताने भी सुनने पडते हैं क्योंकि हम अपने धर्म और जाति का अपमान करते हैं.
बिहार में रहते हुए मुझे इतनी अधिक समस्या नहीं हुई कि मैं इस बारे में कुछ लिखने को मजबूर हो जाऊं. हां जब से महाराष्ट्र आई, तकरीबन हर दिन मुझे इस सवाल से जुझना पड रहा है. ट्रेन से लेकर विश्विद्दालय और होस्टल में नामांकन कराने तक हर जगह मुझे इसी सवाल का सामना करना पडा. बात केवल सवाल तक रहती तो शायद इतनी बुरी न लगती लेकिन मुझसे इसके लिये जिरह की जाती है. लोग यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि बिना सरनेम का भी किसी का नाम हो सकता है.
ट्रेन से वर्धा आने के क्रम में मेरी दोस्ती एक सभ्रांत परिवार से हुई. फ़ोन नम्बर का आदान-प्रदान भी हुआ. जब मैंने उनसे उनका नाम पुछा तो उन्होंने नाम बताने की जगह कहा कि हमलोग जायसवाल हैं, आप इसी नाम से नम्बर सेव कर लो और मैने कर भी लिया. अब सरनेम बताने की बारी मेरी थी, लेकिन मैंने उन्हें अपना नाम बताया. वो लोग मेरा सरनेम जानना चाह रहे थे. इस बात पे काफ़ी देर तक बहस भी हुई. धीरे-धीरे यह सवाल मेरे सामने रोज आने लगा. कभी-कभी तो यह मह्सूस होता है कि अपने नाम में सरनेम न लगाकर मैने बहुत बडी गलती कर दी.
चूंकि मैं पत्रकारिता से जुडी रही हूं, इंटरव्यू का दौर चलता रहता है. कई बार लोगों ने मुझे यह भी सुझाव दिया है कि आप साक्षात्कार के दौरान अपने किसी रिश्तेदार का नाम ले लेना जिससे आपकी जाति का पता उन्हें लग सके. इसकी वजह ये थी कि इस टीम मे जो लोग रह्ते थे वे मेरी जाति से ताल्लुक रखते थे.
एक और वाक्या बताना चाहूंगी. पिछ्ले दिनों दिल्ली में एक न्यूज चैनल में मेरा इंटरव्यू हुआ. जो टीम मेरा इंटरव्यू ले रही थी उसने भी मेरे नाम में सरनेम न होने की वजह पूछी. मेरे तर्क से वे प्रभावित तो हुए लेकिन तब तक उन्हें चैन न आया जब तक मेरी जाति के बारे में पता न चला.
एक सवाल दिमाग में कौंधने लगा कि क्या हमारी पह्चान केवल हमारी जाति या धर्म से है? क्या अपने परिवार, जाति, धर्म, कुल से अलग हमारी पहचान नहीं हो सकती?
मेरा मानना है कि व्यक्ति की खुद की पह्चान जरुरी है. हो सकता है कई लोग मेरी बातों से इत्तफ़ाक न रखते हों लेकिन इतना तो तय है कि किसी कि जाति का पता लगाए बगैर यदि उससे दोस्ती की जाये तो वो दोस्ती बहुत प्यारी होती है. अक्सर देखा गया है कि हर जाति के संबंध में लोग किसी न किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित रहते हैं. जाति के बारे में जानने के बाद सामने वाले के प्रति एक खास तरह की मनोवृत्ति बना ली जाती है जो उसके साथ सरासर नाइंसाफ़ी करना है.
मैं यह नहीं कह्ती कि जो लोग अपने नाम के आगे सरनेम लगाते हैं उनकी कोई अलग पह्चान नहीं होती. लेकिन हर नाम का एक खास अर्थ होता है. यदि आप गौर करें तो पायेंगे किसी भी व्यक्ति के नाम का गुण उसके स्वभाव में जरुर आता है. एक जैसे नामों वाले भी कई लोग होते हैं, ऐसे में थोडी समस्या हो सकती है. ऐसे में सरनेम या नीकनेम का सहारा लिया जा सकता है. लेकिन अपने सरनेम को बचाने के लिये नाम का सहारा लेना मुझे उचित नहीं जान पडता. अपने पूर्वजों को अपनी कामयाबी का जरिया बनाना खुद को कमजोर समझना है.

Tuesday, February 22, 2011

मर्यादाओं का बोझ


महिला आयोग, महिला हेल्प लाईन, नारी सशक्तीकरण योजना, नारीवाद इस तरह के शब्द आज भी यह बताने के लिये काफी हैं कि तमाम परिवर्तनों के बावजूद भी हम स्त्रियां पुरुषसत्तात्मक समाज की गुलाम ही हैं. हमारी स्थितियों में सुधार की कथित कोशिश की जा रही है. कुछ अपवाद जरूर मिल जायेंगे. हमे बहलाने, फुसलाने और बरगलाने के लिये ढेर सारे विशेषण और उपमायें दिये गये हैं. खुद का शोषण और दोहन करते करवाते हुए हम इस तथाकथित सभ्य समाज की संस्कृति के पोषण और संवर्धन का जिम्मा उठाये हुए हैं. सब कुछ सहते-झेलते हुए चुपचाप बनावटी मुस्कान लिये जी लेना ही आज की सुसंस्कृत नारी की पहचान है.
समाज में व्यापक पैमाने पर बदलाव आये हैं. हमारा समाज पहले की तुलना में उदार भी हुआ है. सब कुछ होने के बावजूद भी अगर आज नारी निर्णय लेने की को्शिश करती है तो वह पुरुषों को खटक जाती है (अधिकांशतः). हमारे रिवाज, जिसे पोषित करने का जिम्मा हमने उठा रखा है अब तक हमारे लिये बेड़ियां ही सिद्ध हुई हैं.
रिवाजों के अनुसार हिंदु धर्म में शादी एक बार ही होती है. अगर आप सभ्य हैं तो आपको सिर्फ और सिर्फ अरेंज मैरेज पर ही भरोसा करना होगा. हां कुछ हद तक लड़कों को इस मामले में छूट है कि वो अपने पसंद की लड़की से शादी कर सकते हैं. जिस लड़के से आपकी शादी कर दी जाती है ताउम्र उस बंधन को निबाहना आपकी नैतिक जिम्मेवारी बन जाती है. आपके विचार उससे कितने मेल खाते हैं ये कभी मुद्दा बनता ही नहीं है. हमारे समाज का ताना-बाना ही ऐसा है कि एक बार जिसके साथ आपको बांध दिया गया है हर हाल में आपको वहीं रहना होगा. यही वजह है कि अन्य देशों की तुलना में हमारे यहां तलाक की घटना कम होती है. इस वजह से हम यह न मान लें कि हमारे यहां सारे विवाहित जोड़े खुशहाल जीवन जी रहे हैं.
दाम्पत्य जीवन में छोटे-मोटे झगड़े और नोंक-झोंक का होना आम बात है. कुछ हद तक इससे पति-पत्नी के बीच प्रेम बढता भी है. जैसा कि एक गाना भी हमलोगों ने सुना है कि “तुम रूठी रहो मैं मनाता रहुं इन अदाओं पे और प्यार आता है……….”. हां अगर दंपति के बीच विचारों की समानता नहीं है तो ये झगड़े कभी-कभी रिश्तों मे अवसाद घोल देते हैं. कई बार ऐसा देखा गया है कि सालों बीत जाने के बाद भी उनके बीच प्रेम पनपता ही नहीं है और दोनों विवश होकर एक दूसरे के साथ जीने को मजबूर होते हैं. इन आपसी कलह और दूरी का दुष्प्रभाव बच्चों पर भी पड़ता है. इन बच्चों को अपने माता-पिता से ज्यादा लगाव तो नहीं ही होता है इनका नजरिया ज़िंदगी और रिश्तों के प्रति बदलने भी लगता है.
कहने के लिये तो इनका परिवार होता है, बच्चे होते हैं और दिखावे के लिये इनके पास एक खुशहाल ज़िंदगी भी होती है. इन सबसे अलग ये जोड़े डिप्रेशन में जी रहे होते हैं. अब सवाल उठता है कि जहां रिश्तों में प्रेम हो ही नहीं उसे ढोने से क्या फायदा ? दोनो खुशहाल रहें तो बात समझ में आती है. रिश्ते अगर मजबूरी बन जाये तो दोनो को अपना रास्ता अलग कर लेना ही समझदारी कही जायेगी.
अलग होने या तलाक लेने का निर्णय अगर एक महिला ले तो यह समाज के लिये अपच हो जाती है. यहां तक कि हिन्दी या संस्कृत में इसका कोई पर्यायवाची शब्द भी नहीं है. इस श्ब्द और घटना को वर्जित ही मान लें. अगर कोई महिला आजिज होकर यह कदम उठा भी ले तो हमारा थाकथित सभ्य समाज उसका जीना दूभर कर देती है. घरवालों-पड़ोसवालों से उसे इतनी प्रताड़ना मिलती है कि वह मान लेती है कि उसने कोई बहुत बड़ा गुनाह किया हो. हद तो तब हो जाती है जब खुद की मां-बहन भी उसे यह नसीहत देते मिलती है कि जिस घर को तेरी डोली गई है वहीं से तेरी अर्थी निकले तो ज्यादा बेहतर. उसे समाजिक परंपराओं की दुहाई देते हुए कष्ट और तकलीफ सहकर रिश्तों को बचाने की नेक सलाह दी जाती है. यहां आकर परंपरा और सभ्यताओं की आड़ में मानवता मर जाती है. एक इंसान की खुशी का गला घोट दिया जाता है. उसे दर्द और तकलीफ को सहते हुए भी उसी रिश्ते में जीने को मजबूर कर दिया जाता है.
हिन्दु मैरेज एक्ट में 1976 में संशोधन कर धारा 68 के तहद हिन्दुओं को तलाक लेकर अलग रहने का अधिकार दिया गया है. हर साल इसके द्वारा काफी लोग अलग भी हो रहे हैं लेकिन आज भी हमारा समाज इसे स्विकार करने को तैयार नहीं है. हालांकि पुरुषों को इस मामले में आजादी है. वो जिससे चाहे जब चाहे अपनी हैसियत के हिसाब से संबंध बना और तोड़ सकता है. यही फैसला अगर एक त्रस्त होकर लेती है तो उसे मानसिक ही नहीं शारीरिक प्रताड़नाओं से भी गुज़ड़ना पड़ता है. उसे उपदेश दिया जाने लगता है कि भला है बुरा है जैसा भी है तेरा पति तेरा देवता है. इस तरह के उपदेश उससे मिलने वाला हर शख्स देने को आतुर रहता है, भले ही उसकी समझ जितनी भी हो.
आज हमारे समाज की जरूरतें बदल रही है. विकसित होते इस दौर में वह भी सुविधा सम्पन्न हो रहा है. आये दिन अपनी सुविधाओं में इजाफा भी कर रहा है. अब जरूरत है कि वह अपनी सोच भी बदले. हम पहले इंसान हैं लड़कियां तो बाद में हैं. जीवनसाथी तो वो है जो हर सुख-दुख, धूप-छांव में एक-दूसरे के साथ रहे. वो एक दूसरे के पूरक भी हों. समझौते की स्थिती को आगे बढाने से बेहतर है कि रास्ते अलग कर लें. ऎसे मामले में नई ज़िंदगी की शुरुआत करना ही समझदारी कही जायेगी.

Tuesday, January 25, 2011

संस्कारों तले दबती महिलायें


पटना के राजाबाजार इलाके में रहनेवाली शालिनी मुश्किल से 18 साल की भी नहीं हुई थी कि उसके माता-पिता को उसकी शादी की चिंता सताने लगी। आनन-फानन में लड़का भी ढूंढ लिया गया। न तो उसकी मर्जी जानने की कोशिश की गई और न ही पंसद। इंटर की परीक्षा पास करने से पहले ही परिवार वालों ने उसके हाथ पीले कर दिये और जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ लिया। तमाम लड़कियों की तरह उसने भी ढेरों सपने बुने थे। एक पल तो लगा मानो सारे सपने एक ही चोट से चकनाचूर हो गए। लेकिन शालिनी ने फैसला किया कि जो जिन्दगी उसे दी गई है, उसमें वह खुश रहेगी। अपने परिवार के तमाम लोगों को खुश करने का जिम्मा भी उसने अपने सिर ले लिया। आज शादी को 10 साल से भी अधिक हो चुके हैं। और आज भी वह अपने ससुराल वालों को खुश रखने के लिए अपनी खुशियों की कुर्बानी दे रही है या यूं कहें कि खुद को मार रही है। कभी सास और ननद के ताने तो कभी पति की मार, यही शालिनी का नसीब बन चुका है। हर दिन उसे नीचा दिखाने के लिए कोई नया बहाना ढूंढा जाता है। मायके वालों से पैसे मांगने के लिए दबाव डाला जाता है। जब उसकी दोस्तों और हितैशियों ने महिला आयोग या कोर्ट जाने की सलाह दी तो उसकी जवाब था कि रहना तो इन्हीं लोगों के साथ है, लड़ाई करने से क्या मिलेगा।
ये कहानी केवल एक शालिनी की नहीं बल्कि रोज ऐसी कई शालिनी घरेलू हिंसा की शिकार बन रही हैं। इसकी वजह कभी लड़की का परिवार तो कभी समाज है, लेकिन सबसे बड़ी वजह तो उसका खुद अत्याचार सहना है। इसे नियती मानकर वह अपनी आदत बना लेती हैं और यही शिक्षा और तथाकथित संस्कार अपनी बेटियों को भी देती हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह पंरपरा चली आ रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बिहार की 60 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं जो पूरे देश में सबसे अधिक है। इनमें 50 प्रतिशत शारीरिक उत्पीड़न, 19 प्रतिशत यौन उत्पीड़न, 2 प्रतिशत मानसिक यातना और और 59 प्रतिशत शारीरिक तथा यौन उत्पीड़न दोनों की शिकार हैं। पूरे देश में जहां घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं का प्रतिशत 37 है वहीं बिहार में इसका प्रतिशत 60 होना चैंकाने वाला है। NFHS(National Family Health Survey)  की मानें तो इसकी सबसे बड़ी वजह है अशिक्षा। रिपोर्ट के अनुसार शारीरिक, मानसिक तथा यौन उत्पीड़न की शिकार इन महिलाओं में से 64 प्रतिशत अशिक्षित हैं। उनके साथ दुव्र्यवहार करने वाले 63 प्रतिशत पुरूष अशिक्षित हैं। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि शिक्षित होने का मतलब केवल साक्षर होना ही नहीं।
घरेलू हिंसा की शिकार 40.2 प्रतिशत औरतें ग्रामीण इलाकों में रह रही हैे। क्या इसका मतलब उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी न होना है? कुछ हद तक इसे सही माना जा सकता है लेकिन इसे पूर्ण सच्चाई नहीं मानी जा सकती। राज्य सरकार ने महिलाओं के विकास के लिए अनेकों योजनाओं की शुरूआत की है। पंचायत चुनाव में 50 प्रतिशत आरक्षण, मुख्यमंत्री कन्या सुरक्षा योजना, मुख्यमंत्री नारी शक्ति योजना, मुख्यमंत्री बालिका साईकिल योजना, मुख्यमंत्री अक्षर आंचल योजना और लक्ष्मीबाई पंेशन योजना के अलावा ढेरों ऐसी योजनाएं चल रही हैं जो औरतों को आर्थिक तथा शैक्षणिक मजबूती प्रदान कर सके। समय-समय पर सरकार तथा विभिन्न स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा इन्हें अपने अधिकारों का एहसास भी कराया जाता है। लेकिन रूढ़ीवादी समाज में पली-बढ़ी इन औरतों के लिए शायद ये ज्यादा महत्व नहीं रखता। क्योंकि इनके संस्कार इन्हें इसकी इजाजत ही नहीं देते। नारी को देवी और शक्ति की उपमा देने वाले टीवी चैनल्स भी नायिका को ममता, त्याग, सब्र और सहनशीलता की मूरत बताने में ही अपनी भलाई मानते हैं। महिलाएं भी इसे देखकर थोड़ी देर के लिए खुश हो जाती हैं। कुल मिलाकर औरतों की एक ही तस्वीर उभर कर सामने आती है - त्याग और बलिदान की मूरत. वो समझने को तैयार ही नहीं हैं कि ये उनके खिलाफ एक सोची-समझी साजिश है.
कष्ट सहना और अपनी ईच्छाओं का गला घोंटकर परिवार की खुशियों के बारे में सोचना ये अपना परम कर्तव्य समझती हैं। बचपन से इन्हें यही तालीम दी जाती है। परिवार और समाज इसे औरत की महानता और जिम्मेवारी का हवाला देकर किनारा कर लेता है। औरतों की ऐसी स्थिति पूरे देश में है लेकिन हमारा बिहार इसमें सबसे आगे है। दहेज हत्या के मामले में भी राज्य की स्थिति कुछ ऐसी ही है। बिहार, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश इस मामले में देश में अव्वल नम्बर पर है। यह बात खुद महिला एवं बाल कल्याण मंत्री कृष्णा तीरथ ने लोक सभा को बतायी थी। ये तो सरकारी आंकड़े हैं, हकीकत इससे कितनी अधिक हो सकती है इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 2008 में कुल 1210 दहेज हत्या का मामला प्रकाश में आया। 2009 में कुछ कमी आयी और यह 918 पर पहुंच गया। यदि वाकई महिलाओं की हालत में सुधार हो रही है तो घरेलू हिंसा की शिकार औरतों की इतनी अधिक तादाद क्यों है? अगर दहेज हत्या में कमी आयी भी है तो इसका एक कारण कानून का भय भी हो सकता है। लेकिन क्या राज्य की औरतों में जागरूकता आयी है? क्या ये अपनी इच्छा से कुछ कर सकती हैं? घर में अपनी पसंद का खाना तक बना और खा सकती हैं? ऐसे कई अनगिनत सवाल हैं जिनका जवाब इनके पास नहीं है। ममता और त्याग की देवी मान ये खुद को छलना बेहतर मानती आयी हैं। और अगर इससे भी काम न चले तो किस्मत तथा भगवान की मर्जी जैसे लफ्जों का आसरा ले लेती हैं। जबतक ये औरतें पुरूष प्रधान समाज को जवाब देने की जगह खुद को बहलाना बंद नहीं करेंगी इनकी स्थिति में सुधार की गुंजाइश  संभव नहीं है।