पटना के राजाबाजार इलाके में रहनेवाली शालिनी मुश्किल से 18 साल की भी नहीं हुई थी कि उसके माता-पिता को उसकी शादी की चिंता सताने लगी। आनन-फानन में लड़का भी ढूंढ लिया गया। न तो उसकी मर्जी जानने की कोशिश की गई और न ही पंसद। इंटर की परीक्षा पास करने से पहले ही परिवार वालों ने उसके हाथ पीले कर दिये और जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ लिया। तमाम लड़कियों की तरह उसने भी ढेरों सपने बुने थे। एक पल तो लगा मानो सारे सपने एक ही चोट से चकनाचूर हो गए। लेकिन शालिनी ने फैसला किया कि जो जिन्दगी उसे दी गई है, उसमें वह खुश रहेगी। अपने परिवार के तमाम लोगों को खुश करने का जिम्मा भी उसने अपने सिर ले लिया। आज शादी को 10 साल से भी अधिक हो चुके हैं। और आज भी वह अपने ससुराल वालों को खुश रखने के लिए अपनी खुशियों की कुर्बानी दे रही है या यूं कहें कि खुद को मार रही है। कभी सास और ननद के ताने तो कभी पति की मार, यही शालिनी का नसीब बन चुका है। हर दिन उसे नीचा दिखाने के लिए कोई नया बहाना ढूंढा जाता है। मायके वालों से पैसे मांगने के लिए दबाव डाला जाता है। जब उसकी दोस्तों और हितैशियों ने महिला आयोग या कोर्ट जाने की सलाह दी तो उसकी जवाब था कि ”रहना तो इन्हीं लोगों के साथ है, लड़ाई करने से क्या मिलेगा।“
ये कहानी केवल एक शालिनी की नहीं बल्कि रोज ऐसी कई शालिनी घरेलू हिंसा की शिकार बन रही हैं। इसकी वजह कभी लड़की का परिवार तो कभी समाज है, लेकिन सबसे बड़ी वजह तो उसका खुद अत्याचार सहना है। इसे नियती मानकर वह अपनी आदत बना लेती हैं और यही शिक्षा और तथाकथित संस्कार अपनी बेटियों को भी देती हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह पंरपरा चली आ रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बिहार की 60 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं जो पूरे देश में सबसे अधिक है। इनमें 50 प्रतिशत शारीरिक उत्पीड़न, 19 प्रतिशत यौन उत्पीड़न, 2 प्रतिशत मानसिक यातना और और 59 प्रतिशत शारीरिक तथा यौन उत्पीड़न दोनों की शिकार हैं। पूरे देश में जहां घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं का प्रतिशत 37 है वहीं बिहार में इसका प्रतिशत 60 होना चैंकाने वाला है। NFHS(National Family Health Survey) की मानें तो इसकी सबसे बड़ी वजह है अशिक्षा। रिपोर्ट के अनुसार शारीरिक, मानसिक तथा यौन उत्पीड़न की शिकार इन महिलाओं में से 64 प्रतिशत अशिक्षित हैं। उनके साथ दुव्र्यवहार करने वाले 63 प्रतिशत पुरूष अशिक्षित हैं। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि शिक्षित होने का मतलब केवल साक्षर होना ही नहीं।
घरेलू हिंसा की शिकार 40.2 प्रतिशत औरतें ग्रामीण इलाकों में रह रही हैे। क्या इसका मतलब उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी न होना है? कुछ हद तक इसे सही माना जा सकता है लेकिन इसे पूर्ण सच्चाई नहीं मानी जा सकती। राज्य सरकार ने महिलाओं के विकास के लिए अनेकों योजनाओं की शुरूआत की है। पंचायत चुनाव में 50 प्रतिशत आरक्षण, मुख्यमंत्री कन्या सुरक्षा योजना, मुख्यमंत्री नारी शक्ति योजना, मुख्यमंत्री बालिका साईकिल योजना, मुख्यमंत्री अक्षर आंचल योजना और लक्ष्मीबाई पंेशन योजना के अलावा ढेरों ऐसी योजनाएं चल रही हैं जो औरतों को आर्थिक तथा शैक्षणिक मजबूती प्रदान कर सके। समय-समय पर सरकार तथा विभिन्न स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा इन्हें अपने अधिकारों का एहसास भी कराया जाता है। लेकिन रूढ़ीवादी समाज में पली-बढ़ी इन औरतों के लिए शायद ये ज्यादा महत्व नहीं रखता। क्योंकि इनके संस्कार इन्हें इसकी इजाजत ही नहीं देते। नारी को देवी और शक्ति की उपमा देने वाले टीवी चैनल्स भी नायिका को ममता, त्याग, सब्र और सहनशीलता की मूरत बताने में ही अपनी भलाई मानते हैं। महिलाएं भी इसे देखकर थोड़ी देर के लिए खुश हो जाती हैं। कुल मिलाकर औरतों की एक ही तस्वीर उभर कर सामने आती है - त्याग और बलिदान की मूरत. वो समझने को तैयार ही नहीं हैं कि ये उनके खिलाफ एक सोची-समझी साजिश है.
कष्ट सहना और अपनी ईच्छाओं का गला घोंटकर परिवार की खुशियों के बारे में सोचना ये अपना परम कर्तव्य समझती हैं। बचपन से इन्हें यही तालीम दी जाती है। परिवार और समाज इसे औरत की महानता और जिम्मेवारी का हवाला देकर किनारा कर लेता है। औरतों की ऐसी स्थिति पूरे देश में है लेकिन हमारा बिहार इसमें सबसे आगे है। दहेज हत्या के मामले में भी राज्य की स्थिति कुछ ऐसी ही है। बिहार, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश इस मामले में देश में अव्वल नम्बर पर है। यह बात खुद महिला एवं बाल कल्याण मंत्री कृष्णा तीरथ ने लोक सभा को बतायी थी। ये तो सरकारी आंकड़े हैं, हकीकत इससे कितनी अधिक हो सकती है इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 2008 में कुल 1210 दहेज हत्या का मामला प्रकाश में आया। 2009 में कुछ कमी आयी और यह 918 पर पहुंच गया। यदि वाकई महिलाओं की हालत में सुधार हो रही है तो घरेलू हिंसा की शिकार औरतों की इतनी अधिक तादाद क्यों है? अगर दहेज हत्या में कमी आयी भी है तो इसका एक कारण कानून का भय भी हो सकता है। लेकिन क्या राज्य की औरतों में जागरूकता आयी है? क्या ये अपनी इच्छा से कुछ कर सकती हैं? घर में अपनी पसंद का खाना तक बना और खा सकती हैं? ऐसे कई अनगिनत सवाल हैं जिनका जवाब इनके पास नहीं है। ममता और त्याग की देवी मान ये खुद को छलना बेहतर मानती आयी हैं। और अगर इससे भी काम न चले तो किस्मत तथा भगवान की मर्जी जैसे लफ्जों का आसरा ले लेती हैं। जबतक ये औरतें पुरूष प्रधान समाज को जवाब देने की जगह खुद को बहलाना बंद नहीं करेंगी इनकी स्थिति में सुधार की गुंजाइश संभव नहीं है।
एक ऐसा सत्य जिसे झुठलाया नहीं जा सकता.... पर इस समाज की यही व्यथा है...
ReplyDeleteऔर ये बात अब महज एक प्रांत या राज्य में सीमित नहीं रह गयी है बल्कि सभी जगह है...
हद तो ये है के जब आप बड़े बड़े पदों पर आसीन IAS/IPS अफसरों में भी ऐसी ही हरकते देखते हैं...जो नियमित अख़बारों की सुर्खियाँ बन रही हैं....जहाँ दोनों मियां बीवी पढ़े लिखे और सुसभ्य समाज की नुमाइंदगी करते हैं...परन्तु घर की चार दीवारी में वही अनपढ़ों वाली हरकतें....
समझ में ये नहीं आता....आखिर हम जा कहाँ रहे हैं......
उम्मीद करें की आज के युवा ऐसी गलतियाँ न दोहराएँ..
और दोनों को समाज में बराबरी का दर्जा दिया जाये...
बेहतर आलेख... लिखती रहिये.शुभकामनाओं सहित..
देर सही लेकिन दुरुस्त आईं. उम्मीद है यह सिलसिला अब टूटेगा नहीं.
ReplyDeleteबेबाक लेखन के लिये बधाई!
"जबतक ये औरतें पुरूष प्रधान समाज को जवाब देने की जगह खुद को बहलाना बंद नहीं करेंगी इनकी स्थिति में सुधार की गुंजाइश संभव नहीं है"
ReplyDeleteसार्थक तथा प्रेरक आलेख
बिल्कुल सही कहा आपने...महिलाएँ जब तक ये नहीं समझेंगी कि अपनी इच्छा को परवान चढ़ाना कोई स्वार्थ या पाप नहीं है तब तक उनकी इस कमज़ोरी का इसी प्रकार इस्तेमाल किया जाता रहेगा...कभी भावनात्मक रूप से तो कभी सीधा शोषण के रूप में...समाज की मानसिकता बदलने के इंतज़ार या उसके भय में बैठना अपने आप को छलना ही है...उन्हें यह जानना होगा कि प्रकृति ने सिर्फ उन्हें ही दूसरों के लिए त्याग करने को नहीं बनाया...यहाँ हर कोई इंसान है और संवेदना हर इंसान में होनी चाहिए...सिर्फ उनमें नहीं...
ReplyDeletesunita ji,
ReplyDeleteshayar family mein aapka link mila, agar kavita ya shayari kee shaukeen hain to wahan bhi post karen.
stree kee dasha mein sirf ek hin sudhaar hai ki unhe aarakshan mil raha warna aarthik, saamaajik, maansik, sabhi roop se stree aur bhi kamjor padtee ja rahi hai. jab bhi stree sashktikaran ki baat hoti hai ya fir khaas mahilaaon ko bata kar ye kaha jata hai ki dekho stree ab pichhdi kahan? aashcharya hota hai ye sunkar. jahan tak mujhe lagta hai stree utpeedan aur bhi badhta ja raha, hum sabhi jaise niroopaay ho chuke hain.
bahut achha likha hai aapne. ek jaagruk aalekh keliye shubhkaamnaayen.
बहुत अच्छे!! बगावत जरूरी है!! लेकिन पन्नों से हकीकत तक के सफर में यह बगावत दम ना तोड़ दे क्युंकि अकसर अपनी 'समर्पिता' वाली छवि के अधीन रही महिलाएं दूसरों की खुशी के लिए लुटने-पिटने को तैयार रहती हैं. उम्मीद है एक दिन महिलाएं अपनी ही छवि में संशोधन करेंगी. शुभकामनाएं.
ReplyDeletepahle blog k liye dher saari badhaiyan
ReplyDeletehope tm apne blogs k jariye yu hi jwalnt muddon ko uthate rahoge...........
agreed...likhti raho
ReplyDeleteख़ुशामदीद.बढ़िया आलेख.
ReplyDeleteसलाम
बहुत सुंदर आपका स्वागत हे
ReplyDeleteआपका शुक्रिया....
सार्थक तथा प्रेरक आलेख|शुभकामनाएं|
ReplyDeleteआपने तो आज कल के हालात को बयां कर दिया,ज़रूरत है एक क्रांति की अच्छा आलेख , शुभकामनायें
ReplyDeleteलड़कियां बदल रही हैं , समाज भी बदल रहा है पर दोनों के बदलाव में बहुत अंतर है | हाँ धीरे - धीरे आज वो अपना संसार खुद चुनने में सक्षम हो रही है | ये उसके अपने होंसलों की उडान ही तो है |
ReplyDeleteनारी को नारी से परिचित करवाती सुन्दर रचना |
शब्द पुष्टिकरण हटा दें तो टिप्पणी करने में आसानी होगी ..धन्यवाद
ReplyDeleteवर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो NO करें ..सेव करें ..बस हो गया
सुनीता जी खूबसूरत विचार ,क्रन्तिकारी सोच इसी तरह बनाए रखें बधाई |
ReplyDelete