Friday, October 21, 2011

अन्ना आंदोलन और मीडिया कवरेज


हम लोकतांत्रिक व्यवस्था में जीते हैं. इसे बनाने, बचाने और संवारने की जिम्मेवारी हमारी आपकी और संसदीय संस्थाओं की है. लोकतंत्र दो स्तरों पर काम करता है- एक हमारे स्वविवेक पर और दूसरा लोकतांत्रिक संस्थाओं के माध्यम से.
हम जैसे-जैसे समानता, आजादी, बंधुत्व को जानने समझने लगते हैं, इसके हनन के बारे मे भी हमारी समझ विकसित होने लगती है. इसके बाद हम निकल पड़ते हैं इसे बनाने और बचाने के लिये, परिणाम जाने वगैर.
अन्ना का आंदोलन भी एसे समय में हुआ जब समाज का आम आदमी भी खुद को असुरक्षित और परेशान महसूस करने लगा था. तंत्र की लगातार विफलताओं के खिलाफ लोग एकजुट होने लगे. इसे विड्म्बना ही कहेंगे कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में पूरे आंदोलन के दौरान लोक और तंत्र एक दूसरे के विपरीत दिखे.
२जी घोटाला, आदर्श सोसाईटी घोटाला, कॉमन्वेल्थ घोटाला, रेड्डी बंधुओं के अवैध खनन का मामला, मंहगाई, भ्रष्टाचार कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिसने आम जनता को सड़कों पर आने को विवश कर दिया. अन्ना के आंदोलन ने आम जनता के उबाल को सिर्फ एक प्लेटफॉर्म दिया.
२जी स्पेक्ट्रम घोटाले में मीडिया के कुछ नामचीन पत्रकारों के नाम सामने आये. इससे खुद मीडिया कलंकित भी हुई. अन्ना आंदोलन नें मीडिया के इस दाग के लिये गंगाजल का काम किया.
अन्ना आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन की तरह व्यापक कवरेज भी मिला. याद कीजिये वह क्षण जब चौटाला और उमा भारती को ग्राउंड जीरो से हूट किया गया था और मीडिया ने उसी तरलता से उस घटना क्रम को लपका भी. सारे चैनल के कैमरे उस ओर हो गये थे. लेकिन इस बात पर भी चर्चा होना आवश्यक है कि जिस समय इंडिया गेट पर मीडिया के एक नामचीन हस्ती को हूट किया जा रहा था किसी चैनल के कैमरे ने खुद को उधर फोकस नहीं किया. अन्ना का यह आंदोलन इस चौथे खम्भे को भी अपने गिरेबान में झांकने को विवश करता है.
इस पूरे आंदोलन में जिस तरह संसदीय लोकतंत्र के नुमाईंदों की तालाश होती रही कहीं ऐसा न हो कि आगे चल कर मुख्यधारा की मीडिया के विकल्प की तालाश को भी मजबूती मिले.
वैसे कथादेश के मीडिया वार्षिकी में संपादक द्व्य अविनाश दास और दिलीप मंडल कहते हैं 21वीं सदी के मौजुदा दौर में परंपरागत मीडिया जब उम्मीद की कोई रौशनी नहीं दिखा रहा तब वैकल्पिक मीडिया के कुछ रूप सामने आये हैं. इसमें इंटरनेट पे खास तौर पे नज़र रखने की जरूरत है.
अन्ना के आंदोलन को आज वैकल्पिक मीडिया का भी भरपूर सहयोग मिला. अन्ना की टीम और आम जनता नें भी जमकर इसका इस्तेमाल किया.
ऐसा नहीं है कि अन्ना के विरोध में स्वर नहीं फूटे. लोगों ने अन्ना के विचारधारा और उनकी ईमानदारी पर भी संदेह किया. यह सच है कि अन्ना गांधी और जे.पी नहीं हैं. गांधी के पास एक व्यापक दृष्टिकोण था, गांधीवाद आज शोध का विषय होता है. जे.पी के पास सारे विपक्षियों का व्यापक समर्थन था सिर्फ कम्यूनिस्टों को छोड़कर. लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद एक बात तो है कि अन्ना का आंदोलन गैरराजनैतिक है. और सबसे बड़ी बात कि इतने बडे जन सैलाब के समर्थन के बावजूद भी आंदोलन का अहिंसक रह जाना मायने रख्ता है. एक महत्वपूर्ण मुद्दा जो अन्ना और उसकी टीम के लिये है कि इतनी बड़ी उर्जा का इस्तेमाल सिर्फ जनलोकपाल तक ही सिमट कर न रह जाय.
74 के जे.पी आंदोलन में एक नारा सड़कों पर गूंजा करता था सिंहासन खाली करो कि जनता आती है..  अन्ना के इस आंदोलन में खून में उबाल लाने वाला ऐसा कोई नारा तो नहीं गूंजा, लेकिन समर्थकों के सिर पर "मैं भी अन्ना वाली टोपी जरूर देखने को मिली.
अन्ना गांधी नहीं हैं, लेकिन गांधीवादी लीक को पकडकर इतने दिन तक चलने वाला व्यक्ति कुछ न कुछ गांधी तो हो ही जायेगा. यह अन्ना की स्वच्छ, बेदाग और ईमानदार छवि ही है जिसके पीछे भारतीय लोकतंत्र के हर तबके की जनता खड़ी है.
हमारे लोकतंत्र में व्यक्तिविशेष सर्वोपरि न होकर संविधान सर्वोपरि है. वजह यह है कि कहीं हमारा लोकतंत्र खतरे में न पड़ जाय. अन्ना या सिविल सोसाईटी के सदस्यों के द्वारा भी आंदोलन के अब तक के पड़ाव में कभी भी यह नहीं दिखाया गया कि वो खुद या अन्ना को संविधान से सर्वोपरि मानते हैं. माननीय सुप्रीम कोर्ट कई न्यायिक फैसलों के दौरान यह कह चुकी है कि सं विधान में संसोधन किया जा सकता है हां इस बात की वाध्यता है कि उसके मूल विचार में कोई परिवर्तन न हो. अन्ना भी लोकतंत्र की हिफाजत के लिये कानून बनाने की मांग कर रहे हैं.
सरकार, अल्पसंख्यक, बुद्धिजीवियों से लेकर वाम धर्मनिरपेक्ष दलित और मीडिया आलोचकों के द्वरा इस व्यापक कवरेज को असंतुलित और पक्षपातपूर्ण बताया जाता रहा है. यहां तक कहा जाता है कि अगर आंदोलन को 24x7 कवरेज नहीं मिला होता तो यह इतना व्यापक और लंबा नहीं खिंचता. लेकिन आनंद प्रधान कहते हैं माफ़ कीजिये मीडिया या न्यूज चैनल कोई आंदोलन कोई खड़ा नहीं कर सकते. किसी अंदोलन के पीछे कई राजनैतिक, सामाजिक कारक और परिस्थितियां होती है. मीडिया किसी आंदोलन का समर्थन  और कवरेज कर सिर्फ एक प्रतिध्वनी पैदा कर सकता है.  वैसे ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि मीडिया ने राहुल गांधी के भट्टा परसौल यात्रा को भी मीडिया ने व्यापक कवरेज दिया था. लेकिन यह भी सच है कि कि पहली बार किसी जनाअंदोलन के द्वारा मीडिया का सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया गया.
सुंदरलाल बहुगुना, मेधा पाटेकर, निगमानंद से लेकर शर्मिला तक कितने लोगों ने आंदोलन किया और कर रहे हैं. लेकिन किसी को इतना व्यापक कवरेज नहीं मिला. इसके एक वजह यह भी है कि टीम अन्ना को प्रोफेशनल और अनुभवी लोगों का भरपूर सहयोग मिला. मनीष सिंसोदिया, अवस्थी मुरलीधरन और विभव कुमार ऐसे ही कुछ नाम हैं. सब कुछ पहले से तय कर लिया जाता था. प्रेस रिलीज कैसा होगा, किस बात पर कितनी और कब प्रतिकिर्या देनी है, कब लाईव होना है सब का एक तय खांका होता था. जनमत सग्रह का सुझाव मशहूर राजनैतिक विशलेषक राजेंन्द्र यादव का था तो सांसदों के घरों के घेराव करने का अइडिया अमिर खान ने टीम अन्ना को दिया. कुल मिलाकर लोकतंत्र के हिफाजत में मीडिया का सफलता पूर्वक इस्तेमाल हुआ या यूं कहें कि मीडिया ने भरपूर साथ दिया.
अन्ना आंदोलन से इतनी बात तो निकल कर सामने आई कि प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त पर सोचने की जरूरत है. अन्ना का यह आग्रह न सिर्फ उन ताकतों से है जो तंत्र की बागडोर संभाले हुए हैं बल्कि उनसे भी है जो लोकतंत्र को विस्तार और गहराई देने में लगे हुए हैं.
संदर्भ :- तहलका, कथादेश, बलॉगवाणी    

4 comments:

  1. दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
    कल 24/10/2011 को आपकी कोई पोस्ट!
    नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद

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  2. आपको दीप पर्व की सपरिवार सादर शुभकामनाएं

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  3. प्रस्तुति अच्छी लगी । आपका बहुत दिनों से इंतजार करता रहा लेकिन आपकी उपस्थिति दर्ज नही हुई तो सोचा एक बार याद दिला दूं । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहता है । आपसे आत्मीयता सी बन गयी है । दीपावली तो बीत गया पर उसकी भी शुभकामनाएं आपको दे रहा हूँ । धन्यवाद .

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