Tuesday, February 22, 2011

मर्यादाओं का बोझ


महिला आयोग, महिला हेल्प लाईन, नारी सशक्तीकरण योजना, नारीवाद इस तरह के शब्द आज भी यह बताने के लिये काफी हैं कि तमाम परिवर्तनों के बावजूद भी हम स्त्रियां पुरुषसत्तात्मक समाज की गुलाम ही हैं. हमारी स्थितियों में सुधार की कथित कोशिश की जा रही है. कुछ अपवाद जरूर मिल जायेंगे. हमे बहलाने, फुसलाने और बरगलाने के लिये ढेर सारे विशेषण और उपमायें दिये गये हैं. खुद का शोषण और दोहन करते करवाते हुए हम इस तथाकथित सभ्य समाज की संस्कृति के पोषण और संवर्धन का जिम्मा उठाये हुए हैं. सब कुछ सहते-झेलते हुए चुपचाप बनावटी मुस्कान लिये जी लेना ही आज की सुसंस्कृत नारी की पहचान है.
समाज में व्यापक पैमाने पर बदलाव आये हैं. हमारा समाज पहले की तुलना में उदार भी हुआ है. सब कुछ होने के बावजूद भी अगर आज नारी निर्णय लेने की को्शिश करती है तो वह पुरुषों को खटक जाती है (अधिकांशतः). हमारे रिवाज, जिसे पोषित करने का जिम्मा हमने उठा रखा है अब तक हमारे लिये बेड़ियां ही सिद्ध हुई हैं.
रिवाजों के अनुसार हिंदु धर्म में शादी एक बार ही होती है. अगर आप सभ्य हैं तो आपको सिर्फ और सिर्फ अरेंज मैरेज पर ही भरोसा करना होगा. हां कुछ हद तक लड़कों को इस मामले में छूट है कि वो अपने पसंद की लड़की से शादी कर सकते हैं. जिस लड़के से आपकी शादी कर दी जाती है ताउम्र उस बंधन को निबाहना आपकी नैतिक जिम्मेवारी बन जाती है. आपके विचार उससे कितने मेल खाते हैं ये कभी मुद्दा बनता ही नहीं है. हमारे समाज का ताना-बाना ही ऐसा है कि एक बार जिसके साथ आपको बांध दिया गया है हर हाल में आपको वहीं रहना होगा. यही वजह है कि अन्य देशों की तुलना में हमारे यहां तलाक की घटना कम होती है. इस वजह से हम यह न मान लें कि हमारे यहां सारे विवाहित जोड़े खुशहाल जीवन जी रहे हैं.
दाम्पत्य जीवन में छोटे-मोटे झगड़े और नोंक-झोंक का होना आम बात है. कुछ हद तक इससे पति-पत्नी के बीच प्रेम बढता भी है. जैसा कि एक गाना भी हमलोगों ने सुना है कि “तुम रूठी रहो मैं मनाता रहुं इन अदाओं पे और प्यार आता है……….”. हां अगर दंपति के बीच विचारों की समानता नहीं है तो ये झगड़े कभी-कभी रिश्तों मे अवसाद घोल देते हैं. कई बार ऐसा देखा गया है कि सालों बीत जाने के बाद भी उनके बीच प्रेम पनपता ही नहीं है और दोनों विवश होकर एक दूसरे के साथ जीने को मजबूर होते हैं. इन आपसी कलह और दूरी का दुष्प्रभाव बच्चों पर भी पड़ता है. इन बच्चों को अपने माता-पिता से ज्यादा लगाव तो नहीं ही होता है इनका नजरिया ज़िंदगी और रिश्तों के प्रति बदलने भी लगता है.
कहने के लिये तो इनका परिवार होता है, बच्चे होते हैं और दिखावे के लिये इनके पास एक खुशहाल ज़िंदगी भी होती है. इन सबसे अलग ये जोड़े डिप्रेशन में जी रहे होते हैं. अब सवाल उठता है कि जहां रिश्तों में प्रेम हो ही नहीं उसे ढोने से क्या फायदा ? दोनो खुशहाल रहें तो बात समझ में आती है. रिश्ते अगर मजबूरी बन जाये तो दोनो को अपना रास्ता अलग कर लेना ही समझदारी कही जायेगी.
अलग होने या तलाक लेने का निर्णय अगर एक महिला ले तो यह समाज के लिये अपच हो जाती है. यहां तक कि हिन्दी या संस्कृत में इसका कोई पर्यायवाची शब्द भी नहीं है. इस श्ब्द और घटना को वर्जित ही मान लें. अगर कोई महिला आजिज होकर यह कदम उठा भी ले तो हमारा थाकथित सभ्य समाज उसका जीना दूभर कर देती है. घरवालों-पड़ोसवालों से उसे इतनी प्रताड़ना मिलती है कि वह मान लेती है कि उसने कोई बहुत बड़ा गुनाह किया हो. हद तो तब हो जाती है जब खुद की मां-बहन भी उसे यह नसीहत देते मिलती है कि जिस घर को तेरी डोली गई है वहीं से तेरी अर्थी निकले तो ज्यादा बेहतर. उसे समाजिक परंपराओं की दुहाई देते हुए कष्ट और तकलीफ सहकर रिश्तों को बचाने की नेक सलाह दी जाती है. यहां आकर परंपरा और सभ्यताओं की आड़ में मानवता मर जाती है. एक इंसान की खुशी का गला घोट दिया जाता है. उसे दर्द और तकलीफ को सहते हुए भी उसी रिश्ते में जीने को मजबूर कर दिया जाता है.
हिन्दु मैरेज एक्ट में 1976 में संशोधन कर धारा 68 के तहद हिन्दुओं को तलाक लेकर अलग रहने का अधिकार दिया गया है. हर साल इसके द्वारा काफी लोग अलग भी हो रहे हैं लेकिन आज भी हमारा समाज इसे स्विकार करने को तैयार नहीं है. हालांकि पुरुषों को इस मामले में आजादी है. वो जिससे चाहे जब चाहे अपनी हैसियत के हिसाब से संबंध बना और तोड़ सकता है. यही फैसला अगर एक त्रस्त होकर लेती है तो उसे मानसिक ही नहीं शारीरिक प्रताड़नाओं से भी गुज़ड़ना पड़ता है. उसे उपदेश दिया जाने लगता है कि भला है बुरा है जैसा भी है तेरा पति तेरा देवता है. इस तरह के उपदेश उससे मिलने वाला हर शख्स देने को आतुर रहता है, भले ही उसकी समझ जितनी भी हो.
आज हमारे समाज की जरूरतें बदल रही है. विकसित होते इस दौर में वह भी सुविधा सम्पन्न हो रहा है. आये दिन अपनी सुविधाओं में इजाफा भी कर रहा है. अब जरूरत है कि वह अपनी सोच भी बदले. हम पहले इंसान हैं लड़कियां तो बाद में हैं. जीवनसाथी तो वो है जो हर सुख-दुख, धूप-छांव में एक-दूसरे के साथ रहे. वो एक दूसरे के पूरक भी हों. समझौते की स्थिती को आगे बढाने से बेहतर है कि रास्ते अलग कर लें. ऎसे मामले में नई ज़िंदगी की शुरुआत करना ही समझदारी कही जायेगी.

18 comments:

  1. पढ़ना अच्छा लगा!! इस दृष्टिकोण को बनाए रखें. बहुत मुश्किलें आने वाली हैं लेकिन हिम्मत न हारें. डट कर सामना करें. कठोर बनें. किसी भी हालत में इन विचारों को अपने से छूटने न दें!! लिखते रहें. साझा करते रहें!!

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  3. आपकी एक-एक बात से सहमत हूँ...और इसमें समाज से अधिक परिवार का दोष है..

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  4. पसंद आये आपके तेवर. उम्मीद करता हुं ये सिर्फ भाषिक नहीं होंगे. आप वास्तविक अर्थ में भी इसकी लड़ाई लड़ेंगी. लेखनशैली और जीवनशैली में अंतर न हो तो मजा आता है जीने में.

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  5. yun hi likhti rahiye aur apne vichaaron ko mazbooti se pakde rahiye...ye aasaan nhi hoga par karna yahi hoga

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  6. वाकई अच्छा लिखा है आपने...आपकी सोंच सराहनीय है.plz keep it up.

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  7. Bahut khoob..........
    hamari is soe hue sabhy samaj ko jagane k liye aise hi lekhon ki jarurat hai...

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  8. "पेशे से कलम मजदूर हुं. कभी-कभी अनुभवों को शब्द देती हुं यहां उसे ही आपसे साझा करुंगी" - शुभकामनाएं


    "जीवनसाथी तो वो है जो हर सुख-दुख, धूप-छांव में एक-दूसरे के साथ रहे. वो एक दूसरे के पूरक भी हों"

    पूर्ण तथा प्रभावशाली आलेख - ब्लॉग का नाम भी अच्छा लगा

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  9. Manniya Deviji,

    Kya aapne apne Pati ko tyag diya hai ya phir aapke pati ne aapko….. jo aap Hindu Dharm aur apni Hindu Sanskriti se itni naakhush dikhaai de rahi hain........Shayad aapne Saavitri ki kahaaani nahi suni......jisne khud maut se ladaai ladi thi apne pati ke liye........ab aap kahengi ki mai bhi unhi mardo ki taraf se bol raha hoon jin mardo ke samaaj se apko bhaari chid ho chuki hai.....par nahi Deviji.....hamaara HINDU dharam ka itihaas aise mardo se bhi bhara pada hai....jaise ki BHAGWAN RAAM, ARJUN, Krishna etc jinhone apni patniyon ke apne prano ki baazi laga di aur ye sab mard log arrange marraige hi kiye hue the........

    Aaaj ke maha forward jamaane me aap bhi kaoun sa 60-70 ka taaanpura baja rahi hain Deviji?

    Aaaj to ladkiyan boyfriends itne jyada badlati hain jitne vo kapde bhi nahi pahnti....aur to aur agar vo tathakathit shaadi means apke dwra rotdi shaadi means imposed arrange marrige(from parents) kar bhi leti hain to apni sarkaar ne bahut hi badhiya hatiyaar unke haath me thama diya hai..talaak karwane ke liye aur vo hai 498A IPC(Indian Penal Code)......aaap patrakaar hokar aur talaak kanoon ki jaaankaari rakhne ke saath saath iski jaaankari nahi rakhti .......bade hi hairat ki baat hai.........aaj ki ladkiyan 498A ka bahut ki khoobi se istemaal kar rahi hain vo apne boyfriend ke saath rahti hain aur soti hain par apne tathakathit NAPASAND pati ko jail ki hawa khilati hain aur phir 125 Cr.pc(Criminal Procedure code)ke tahat uss bechaare pati se apna mahine ka karcha bhi leti hain aur itna hi nahi vo Domestic Violence Act2005 ke tahat us bechare nalayak pati se (jo ki deviji is ichcha se Annbhigya hota hai)usi ke ghar me apne aur apne ek yaar ke liye hissa bhi mangti hai............mujhe aapke gyan par sachmuch bahut hi daya aa rahi hai Sunitaji.......Aap sachmuch ki devi hi hain jo ki apni purna...awstha ko means SITA aur Savitri ki awastha ko prapt nahi ho saki hai......ab ye to apne apne karm aur bahgya ki hi baat hai deviji ki jo log apni sanskriti aur HINDU dharm ka samman karte hue ji rahe vo kuch bhi kahiye Talakshuda logo se lakh guna achchi jindagi jee rahe hain .........agar aap talakshuda hone ka dard ek baar chakh lengi tab apko samajh aayega ki apna Bhartiya samaj....agar talak hone nahi deta to talaakshuda ko nai jindagi shuru karne ke liye America ya kisi bahari desh ki tarah pahle se achchi patni ya pati bhi nahi de deta.......to rahana to apko aur hame apne hi desh me hain na ....to phir apne dharm aur samaajik paramparon se itna vidroh kyon.......yadi hai to kyon na apna dharam, samaaj aur desh badal daliye.......isse bhi TALAK le lijiye…….

    are jo baat aap niji jindagi ke kah rahi vahi baat mai apne HINDU dharm, sanskriti aur apni BHARAT MATA ki tarf se kah raha hoo ki mai kaise chalaun apne is HINDU dharm, sanskriti aur desh ko.....itni shikayato aur vidroh me............behtar hoga aap apne is dharam, samaj aur desh se bhi talaak lelen aur haan agar kuch sudhaar hi karna chahti hain to is misuse of law ka sudhaar kariye jo ki is asantusti ki aad bahut bade paimaane par apne pariwaron ko tadne ke use ho raha hai........
    ek baat aur aise mardo aur ladko ki ek bahut badi foij abhi bhi apne desh me mojud hai jo aaj bhi arrange marriage me vishwas rakhti hai RAMA, Krishna, Arjun iska shashkt hamaare itihas purush bhi aapke saamne hain..............

    Shayad jawab apko mil gaya hoga...

    Regards
    Samar
    Samara.nha@gmail.com

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  10. सादर शुभ आशीष!
    सुनीता जी
    ‘मर्यादाओं का बोझ’ पढ़ा!
    लिखते रहिए....पढ़ते रहिए.... और अपनी समझ की परिपक्वता की निरंतरता के लिए अपनी अंतरात्मा की मर्यादा को अनंत व्योम-सा विस्तार दीजिए।
    जीवन का भावनात्मक पहलू ही मर्यादाओं की परिधी को रेखांकित करता है लेकिन जैसे ही उसे हम जीवन के भौतिक पहलुओं की चास्नी में डूबोते हैं, उसमें भार की अनुभूति होने लगती है। यही भार धीरे-धीरे बोझ का भान कराने लगता है।
    आपका यह लेख आपके विचारों को नहीं बता रहें हैं और ना ही यह किसी समस्या का समाधान करने के लिए समाज में सहयोग, आह्वान या संधान करने का आग्रह कर रहा है। वास्तव में यह आंकड़े हैं जो समस्या को तो इंगित करने में अपनी दक्षता दर्शाते हैं किंतु समाधान के नाम पर उनके मुंह में बकार ही नहीं है।
    आपसे आग्रह तो नहीं कर सकता किंतु निवेदन जरूर करूंगा कि आप इन आंकड़ों के मायाजाल से निकल कर समाज के इस विभत्स पहलू को भावनात्मक सरोकार से जोड़कर लिखें।
    इस पूरे लेख को पढ़ते हुए मुझे आपकी अनुपस्थिति का आभास हुआ। शायद इसलिए कि यह सारी बातें न जाने मैंने कितनी बार पढ़ी-सुनी होगी, निश्चित तौर पर बता भी नहीं सकता।
    स्त्री और पुरुष में तुलनात्मक सम्बंध नहीं है बल्कि सयोगात्मक सम्बंध है। स्त्री और पुरुष की भूमिका समाज की रचना-संरचना में अलग-अलग है। स्त्री हमेशा ही विशेष रही है। ‘मां ने खाना बनाकर बच्चों को खिलाया लेकिन पिता ने नहीं खिलाया’ क्या इस बात के लिए मां अपने बच्चों और पति से अपनी तुलना करती है?
    भौतिकवाद का हावी होता यह तुलनात्मक भाव हमें अपने स्थिति-परिस्थिति और परिवेश को दिखाने के लिए मकान तो खड़ा कर सकता है लेकिन घर बसाने में तो इसकी सांसे उखड़ जाएंगी और पानी पूछने वाला भी कोई नहीं होगा।
    यायावर
    www.yaayaawar.wordpress.com

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  11. समर जी,
    नमस्कार
    ब्लाग पर आने के लिये शुक्रिया. शुरुआत सलाह से करुं तो बेहतर होगा, किसी के व्यक्तिगत ज़िंदगी के बारे में कुछ बोलना आप जैसे तथाकथित लोगों को शोभा नहीं देता. और हां मैं धार्मिक हूं, नस्तिक हूं, संस्कृति में विश्वास रखती हुं या नहीं, ये जानना आपके अधिकार क्षेत्र से बाहर के विषय-वस्तु हैं.
    हां अगर आपको लगता है कि मैं पूर्वाग्रह से ग्रसित हुं, ये तेवर बेवजह बगावती हैं तो चलो मान लिया कि मैं विरोधी हूं. हां मैं विरोधी हूं, आप जैसे महापुरूषों की जिन्होंने इस संस्कृति को ढोने का सारा ठीकरा महिलाओं पर फोड़ दिया है.
    संस्कृति और मर्यादाओं का हवाला देकर हमेशा औरतों को ही चुप कराया जाता है. आपका धर्म और संस्कृति पुरूषों पर किसी तरह की पाबंदी नहीं लगाता. जैसा कि आपने कहा सावित्री ने सत्यवान के लिए अपने प्राणों की आहूती दी. यह उसका प्रेम था जिसे आपने उसकी मर्यादा माना. प्रेम शाश्वत होता है जिसमें निःस्वार्थ भाव से प्रेमी के हितों और खुशी की कामना की जाती है. परन्तु आपकी हिन्दू संस्कृति ने इसका जिम्मा भी औरतों पर ही थोप दिया है. ऐसा कोई उदाहरण पुरूषों द्वारा नहीं देखा गया है.
    अब आते हैं आपके मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान ‘राम’ पर. जिस औरत को देवी मानकर पूरा संसार पूजता है, उसी देवी सीता से राम ने पहले तो अग्नि परीक्षा ली. उसके बावजूद आपके समाज ने उसपर उंगली उठाई तो राम ने सीता को त्यागना ज्यादा उचित समझा. वह भी उस समय जब सीता गर्भवती थी. यह भी तो सत्यापित करने की जरूरत थी न कि “राम” ने उस 14 वर्षों के दौरान कोई गुल नहीं खिलाये थे. आपके समाज ने न तो राम पर उंगली उठाई और न ही उनकी अग्निपरीक्षा ली गई. वजह साफ है कि मर्यादा के लिए महिलाएं हैं न.
    और किस अर्जुन की बात आप कर रहे हैं. ब्याह कर लाया द्रौपदी को और सामान की तरह बांट लिया पांचों ने. हां यहां भी इसका ठीकरा आप उनकी मां पर मत फोड़ देना. क्या अर्जुन और उसके भाईयों की मत मारी गई थी. द्रौपदी भोग-विलास की वस्तू ही थी तभी तो भाईयों ने उसे दांव पर लगा दिया. उस छलिये कृष्ण की क्या बात करते हैं आप. प्रेम किया किसी और से ब्याह किसी और से रचा लिया.
    आप महापुरूषों को इस बात से तो परेशानी है कि लड़कियां अपना ब्वायफ्रेंड बदलती हैं. लेकिन लड़के चाहे बीच रास्ते में लड़कियों को छेड़ें या उनके साथ बदसलूकी करें उन पर कोई आंच नहीं आती. उल्टे इज्जत लड़कियों को ही इज्जत के उछलने की दुहाई दी जाती है. और आप शायद भूल गए हैं कि आज भी ऐसी महिलाओं का प्रतिशत 1-2 से अधिक नहीं है. शेष 98-99 प्रतिशत महिलाओं की समस्याओं से शायद आपको कोई सरोकार नहीं है. यह सच है कि हमारे कानून ने महिलाओं को बहुत से अधिकार दिये हैं लेकिन इसका फायदा केवल मेट्रो शहरों की शिक्षित महिलाओं को ही मिल पा रही है. और देश में साक्षर महिलाओं का प्रतिशत 52 है. साक्षर और शिक्षित होने में कितना फर्क आप मानते हैं यह मैं आपकी समझदारी पर छोड़ देती हूं. अशिक्षा की शिकार महिलाएं आज भी न तो अपने अधिकारों की समझ रखती हैं और न ही किसी से कुछ कह सकती हैं. उनका एक ही काम है पुरूषों की चाकरी करना. हमारे हिन्दू समाज की सबसे बड़ी खुबी है-एक लड़की को दहेज की मोटी रकम के साथ घर लाओ, दिन-भर नौकरानी की तरह काम लो(पगार की जरूरत भी नहीं). उसके बाद सारे सदस्यों को खुश रखना भी उसकी ही जिम्मेदारी मानी जाती है. जहां तक घरेलू हिंसा एक्ट 2005 की बात आपने की. इसका फायदा अगर जरूरतमंद महिलाओं को मिल पाता तो महिला आयोग, महिला हेल्पलाइन और महिलाओं के लिए खास तौर से काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं की जरूरत ही नहीं पड़ती. आपके पुरूष सत्तामक संस्कृति ने सावित्री, सीता, अनुसुइया, बिहुला जैसी अनेकों पतिभक्त महिलाएं तो दी हैं लेकिन पत्नीभक्ति की बात आते ही लोगों को हंसी आ जाती है. यह केवल मजाक का ही विषय हो सकता है. आपके समाज ने धर्म, संस्कृति, मर्यादा और त्याग के नाम पर केवल महिलाओं का ही शोषण किया है.
    मुझे भी अपनी संस्कृति से प्यार है लेकिन संस्कृति के नाम पर शोषण का मैं विरोध करती हूं. एक पत्रकार होने के नाते मैं कलम से गद्दारी नहीं कर सकती. एक महिला होने के नाते औरतों के दर्द को मैं बेहतर ढंग से समझ सकती हूं. इसलिए जब-जब मुझे कोई बात चुभेगी मैं जरूर इस समाज और आप जैसे महापुरूषों को मुंहतोड़ जवाब दूंगी.
    मेरी बातें शायद स्पष्ट हो गयी होंगी.

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  12. sunita ji,
    bahut pukhtaa vichaar hai aur jaayaz bhi. aaj isi soch ki zarurat samaj ko hai. sandarbh bhale badalte hon lekin haalaat aur samasyaa wahi hoti hai. stree sashktikaran ki kya baat ki jaaye samajh nahin aata. hindu dharm ho ya koi aur dharm kahin na kahin se streeyon ke viruddh ek saajish kee tarah lagta hai, jiske tahat atyaachaar ko sahi sthaapit kiya jata hai. aur dharm ke naam par na sirf purush balki khud mahila bhi mahila ke adhikaar ka hanan karti hai. jabtak dharm ko apni suvidha ke liye istemaal karna band na kiya jaayega sthiti mein koi maakool parivartan nahin hone wala.
    sadiyon se lekar hamesh ke liye ek jwalant prashn hai jiska jawaab hamaare hin paas hai, bas himmat aur saahas ki zarurat hai.
    bahut achha aalekh, badhai aur shubhkaamnaayen.

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  13. आप आपका मेल देखा सोचा देखती हूँ जा कर की क्या की हमारी दोस्त ने किस बात पर चर्चा की होगी यहाँ आई तो दिल खुश हो गया बहुत खुबसूरत लिखती हो तुम और बिलकुल सच यही होता है और यही हो भी रहा है और मेरे ख्याल से एसा होता भी रहेगा बस हमे तो सिर्फ ये देखना है की हम अपनी जिंदगी को कैसे सहज बना सकते हैं जिससे हम अपने आस्तिव , अपने मान को सबके साथ रहकर बनाये रखने में सफल हो सके |
    बहुत अच्छा लगा आपके विचार जानकर इसका इस्तेमाल अपनी रक्षा के लिए अवश्य करना पर चोट पहुचने के लिए हरगिज़ नहीं दोस्त |
    एक शेर अरज है >................
    नेक ने तो नेक बद ने बद जाना मुझे !
    हर किसी ने अपने 2 पैमाने से पहचाना मुझे !

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  14. एक बात और कहना चाहूंगी बुरा मत मानना ये जो पीछे की दीवार है ( black ) यार इसे बदल दो पड़ने में थोड़ी परेशानी हो रही है |
    लिखती अच्छा हो तो सब पड़े तो बहुत अच्छा होगा |

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  16. बहुत अच्छा पोस्ट। पहली बार आया हूं।फिर आउंगा।मेरे पोस्ठ पर आपका स्वागत है।

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